एक ताज़ा ग़ज़ल पेश करता हूँ मैं
रंग जीवन के लफ़्ज़ों में भरता हूँ मैं
शुक्रिया दोस्तो, हो मुख़ालिफ़ मेरे
ख़ार जितने हों, उतना निखरता हूँ मैं
ज़हन में झिलमिला उठती है रोशनी
जब भी ख़ुद से मुलाक़ात करता हूँ मैं
कितनी नादानियाँ ज़िन्दगी में हुईं
याद कर कर के जीता हूँ मरता हूँ मैं
अब न कोई तमन्ना, न ख़्वाहिश कोई
'ये किया मैंने' कहने से डरता हूँ मैं
नज़्म, ग़ज़लों के गुल खिल रहे हैं 'अनिल'
बन के खुशबू जहाँ में बिखरता हूँ मैं
-डॉ अनिल जैन, सागर
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