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एक ग़म कब तलक उठाएं हम

हमीद कानपुरी
एक ग़म कब तलक उठाएं हम।
रोज़ करते नहीं ख़ताएं हम।

रूठने का नहीं सबब जब कुछ,
बेसबब क्यूँ उसे मनाएं हम।

कामयाबी न हाथ आ पायी,
कर चुके अनगिनत सभाएं हम।

याद दिल में रची बसी उनकी,
किस तरह से उन्हें भुलाएं हम।

जुर्म हरगिज़ नहीं है जब कोई,
पा रहे क्यूँ भला सज़ाएं हम।

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