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मौन की शक्ति को पहचानें

राजकुमार जैन राजन
विश्व के लगभग सभी आध्यात्मिक महापुरुषों ने मौन के महत्व को स्वीकार किया है। इसकी महिमा का बखान किया है। मौन (Silence) की अपनी एक भाषा होती है। मौन की अभिव्यक्ति को समझ पाना सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं है। प्रकृति में सदैव मौन का साम्राज्य रहता है। फूलों से सज्जित बगीचे में से कोई हमें पुकारता नहीं, पर अनायास ही हम उस ओर खिंचे चले जाते हैं। खूबसूरत वृक्षों से आच्छादित वन भी मौन रहकर ही तो धरती को सुशोभित करते हैं। पर्वतों की ध्वनि किसी ने नहीं सुनी, पर उन्हें अपनी विशालता का परिचय देने के लिए आवाज नहीं देनी पड़ती है। पानी जितना गहरा होता है, वहाँ उतनी ही शांति व्याप्त होती है। ऊर्जा को संचित करने का अपूर्व साधन है- मौन। मौन से न केवल विकेन्द्रित शक्ति संचित होती है अपितु वाणी में बल व तेज़ भी जागृत होता है। व्यवहारिक जीवन मे भी मौन का विशेष महत्व है। मौन रहकर ही आत्मोन्मुख होकर श्रेष्ठ कार्यों को सम्पन्न करने की शक्ति प्राप्त की जा सकती है। जीवन व्ययवहार में आई बाधाओं को मौन रहकर ही चिंतन कर टालना सम्भव हो पाता है। अत्यधिक वाचालता हमें उच्छऋंखल बनाती है। जबकि मौन हमे विवेकी व धैर्यवान बनाता है।
मौन की क्षमता वस्तुतः असीम है। संसार के श्रेष्ठतम अनुभवों और प्रयोगों में से एक है मौन। मौन में मनुष्य के जीवन का संपूर्ण विज्ञान छिपा हुआ है। महर्षि रमण के बारे में कहा जाता है कि वे मौन भाषण देते थे। मनुष्य तो क्या पशु -पक्षी भी आकर सदा उनके चारों ओर मंडराते थे। हिरन और शेर एक साथ उनके सत्संग का लाभ लेकर चुपचाप चले जाते थे। एकाकी, मौन बने रहकर बड़े से बड़ी सृजनात्मक कल्पनाओं को मूर्त रूप दिया जा सकता है तथा परम आनन्द की अनुभूति की जा सकती है। अगर हम मन के सारे समाधनों को कोई नाम देना चाहें तो वह है -मौन। वाणी में तेज और ओज, शांति बनाए रखने पर ही आता है यह सम्भव है मात्र मौन साधना से। संयम के अभाव में वाणी का उपयोग असंतुलित हो जाता है और भयंकर दुर्घटनाएं घटित हो जाती हैं। तात्तपर्य यही है कि वाणी का उपयोग कमसे कम और सम्भल कर किया जाए। कहावत भी है कि ' एक चुप, हज़ार सुख '। वाणी का कम उपयोग यानी चुप्पी साधना, मौन धारण करना। 
वाणी के संयम के अभाव में इतिहास बदल गए। महारानी द्रोपदी के एक वाक्य 'अंधे की औलाद अंधी ही होती है' ने इतना बड़ा अनर्थ करवा डाला कि 'महाभारत' हो गया। वाणी के असंयम ने कितना विनाश करवा डाला। हम अपने दैनिक जीवन में भी देखते हैं कि वाणी के असंयमित उपयोग के कारण परिवार का वातावरण बिगड़ जाता है। सामाजिक तनाव बढ़ जाता है। परिवार के किसी भी अन्य सदस्य द्वारा किसी भी गलतफहमी के कारण क्रोध करते, अपशब्द बोलते समय परिवार के अन्य सदस्य मौन धारण कर ले या आवेश के समय व्यक्ति खुद मौन धारण कर ले तो वातावरण कटु होने से बच जाता है और अनावश्यक तनाव ढोने से परिवार के अन्य सदस्य बच जाते हैं। पारिवारिक स्नेह टूटने से बच जाता है। यही बात सामाजिक क्रिया-कलापों पर लागू हो सकती है। कहने का मतलब है कि यदि मौन रहकर काम चल सकता है तो हम राई का पहाड़ क्यों बनाएं। विद्वतजनों ने 'मौन' को जीवन का हीरा कहा है जिसे कभी नष्ट नहीं होने देना चाहिए। वाणी से अभिव्यक्त एक एक शब्द को मोती की संज्ञा दी है। हमें उसी रूप में इसका उपयोग करना चाहिये। वाणी मौन के अभ्यास से ही प्रखर होती है तथा प्रभावोत्पादकता आती है। 
मौन इन्द्रिय संयम का सर्वोपरि साधन है। अशांति की दवा मौन है और शांति का टॉनिक भी मौन है। मौन शांति के लिए है और शांति जीवन के लिए। मौन के मार्ग पर चलना ही अंतर्मन की शांति यानी आनन्द की प्राप्ति है। 'महाभारत' लेखन समाप्त होने पर कृष्णद्वैपायन व्यास ने श्रीगणेश से कहा था, 'मेरा बोलना अकथ था, किंतु आप मौन में अवस्थित होकर धैर्यपूर्वक लेखन कार्य में निमग्न रहते थे।' इसपर श्रीगणेश ने उत्तर दिया, 'मूल ऊर्जा तो प्राण है। इसका अनावश्यक क्षरण महापातक है। वाणी-संयम साध लेने से अन्य इंद्रियों का संयम भी स्वतः सध जाता है। अधिक बोलने वाले व्यक्ति से कभी कभी अवांछित शब्द भी निकल जाते हैं। इसका दुष्प्रभाव अन्य इंद्रियों को भोगना पड़ता है। इसलिए मौन धारण करना श्रेयस्कर होता है। भगवान महावीर हों या बुद्ध-ईसा, सुकरात-मुहम्मद, मूसा-जरथुस्त्र, नानक-मीरा अथवा कबीर आदि बीती सदियों के वे महापुरुष हुए हैं जो मौन के द्वारा ही महापुरुषत्व को उपलब्ध हुए। उन्होंने आध्यात्मिक ऊर्जा वाणी संयम से ही प्राप्त की। महात्मा गांधी कहते थे, 'बोलना सुंदर कला है, मौन इससे भी ऊँची कला है। मौन सर्वोत्तम भाषण है। अगर एक शब्द से काम चले तो दो मत बोलो।' इसलिए हम जीवन में मौन के अभ्यासी अवश्य बनें। जीवन में मौन का झरना प्रवाहित होगा तो अंतर्मन में आनन्द का झरना प्रवाहित होगा। योगिराज भर्तृहरि ने मौन को ' ज्ञानियों की सभा में अज्ञानियों का आभूषण' बताया है। 
मौन के बहुत सारे फायदें हैं – मन को शन्ति मिलती हैं, ऊर्जा की बचत होती हैं और विचार सकारात्मक रहते हैं, अपने कार्य को कम समय में अच्छे से पूरा कर लेते हैं, फिजूल बात करके ना तो किसी को दुःख देते हैं ना तो दुखी होते हैं। जो व्यक्ति शांत रहते है उनका सभी सम्मान करते हैं। इस प्रकार मौन रहने के बहुत सारे फायदें हैं।एक अरबी लोकोक्ति है कि, 'मौन के वृक्ष पर शांति के फल पकते हैं।' जॉनज्वेल कहा करते थे कि, 'भरे बर्तनों की अपेक्षा, खाली बर्तन ज़्यादा शोर करते हैं।' जीवन निर्माण और आध्यत्मिक साधना में मौन का अपना विशेष महत्व है। निरर्थक चर्चा में शक्ति का अपव्यय होने के साथ उससे पनपने वाले तनाव से बचने की स्थिति सहज ही बन जाती है। तभी तो दुनियाहैगोल कहते हैं, 'अगर आप 'फ़िजूल की बातें' करना अपनी दिनचर्या से हटा लेंगे तो आप अपने को सकारात्मक और ऊर्जावान महसूस करेंगे और आपकी बुद्धि तीक्ष्ण होगी।' बाईबिल भी कहती है, 'जो अपनी जिह्वा (वाणी) को वश में रखता है वह जीवन भर नियंत्रण में रहता है, किंतु जिसका जिह्वा पर वश नहीं वह नाश को प्राप्त होता है।' यह अनुभव करने की बात है कि जब हम मौन की गहराई में उतरते हैं तो हमारी शेष इंद्रियां अधिक प्राभावी हो उठती है और हमें सब कुछ जीवंत और सकून देनेवाला लगने लगता है। फूल मुस्कुराहते दिखाई देते हैं। तितली हमसे बात करती लगती है। ठंडी हवा संगीत सुनाती महसुस होती है पुस्तकें भी कुछ कहती प्रतीत होती हैं। उस समय मन-बुद्धि में उपजे विचार अधिक परिपक्व होते हैं मौन की यह अवस्था जब गहरी हो जाती है तो मन अभूतपूर्व आनन्द से भर जाता है। इसीलिए तो एमर्सन कहते थे, 'आओ, हम मौन रहने का प्रयास करें ताकि फरिश्तों की काना-फुसी सुन सकें।'
प्राचीन समय मे एक जीवन-शैली थी, आत्मिक मूल्य थे, सांस्कृतिक परम्पराएं एवं जीवन के सिद्धांत थे। आज वे सभी प्रायः समाप्त है। ज्ञान केवल किताबों में कैद होकर छटपटा रहा है। आधुनिकता के मायाजाल और साइबर दुनिया की गंदगी ने मनुष्य की जीवन शैली को पंगु बना दिया है। शांत वातावरण की जगह कानफोड़ू ध्वनियां लोकप्रिय होती जा रही है। कहने को तो आज मनुष्य बहुत तरक्की कर रहा है। वह प्रबुद्ध एवम बुद्धिमान है, लेकिन मानसिक शांति उससे दूरी बनाए जा रही है। वह आक्रोशी, विध्वंसक होता जा रहा है। उसकी वाणी का संयम चूक रहा है। परिणाम होता है- तनाव। शेक्सपियर के शब्दों में कहें तो, 'जहाँ नदी गहरी होती है, वहाँ जल प्रवाह अत्यंत शांत होता है।' मौन का प्रभाव भाषणों से अधिक पड़ता है। मौन रहने वाला व्यक्ति कटुता एवम कष्टों से स्वयं को बचा लेता है और दुश्मनी से भी निजात पा लेता है। मौन के प्रयोग से गुजरने पर क्रोध का तापमान स्वयं ही कम हो जाता है। वर्तमान में सबसे ज्यादा जरूरत मौन रहने के अभ्यास की है। मौन जीवन की ऊर्जा, ऊष्मा, माधुर्य, प्रेम और वात्सल्य है। वर्तमान में भी जो मनुष्य मौन को आत्मसात कर पाएगा वह मौन साधना का समुचित प्रतिफल प्राप्त कर पायेगा। यहाँ इतनी सी बात और कहना चाहूंगा कि मौन का आरम्भ थोड़े-थोड़े समय के लिए करना चाहिए फिर कुछ विराम देते रहकर उसे आगे बढ़ाएं। एकाएक लंबा मौन साधने से उसका निर्वाह कठिन हो जाता है। 'जितना बोलना हो, उतना ही बोलें' यदि ऐसा कर पाए तो हमारी प्रतिभा अधिक जीवंत हो उठेगी। हमारी अनुभूति के लिए अधिक सार्थक शब्द मिलेंगे और हम अपने भीतर छिपी सकारात्मक ऊर्जा से रूबरू हो सकेंगे। मौन से शक्ति प्राप्त होती है। आवश्यकता है मौन की महिमा जानने, पहचानने और उसे अपनाने की है।

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