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रिवायत‌ को ही माफिक पा  रहा हूँ



*हमीद कानपुरी

रिवायत‌ को ही माफिक पा  रहा हूँ।

रिवायत पर  यूँ चलता जा  रहा  हूँ।

 

हिमायत अपने रब की  पा  रहा हूँ।

सदाक़त  की डगर पर जा  रहा हूँ।

 

हिमालय की नदी सा ओज लेकर,

समन्दर की  तरफ  बहता  रहा हूँ।

 

पुराने से   नहीं उल्फत   रही  अब,

नये  रस्ते   बनाता   जा    रहा  हूँ।

 

अकेला ही  चला  हूँ  सूए  मंज़िल,

सफ़र में  हर  घड़ी  तन्हा  रहा  हूँ।

*कानपुर

 


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