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किसको सुनाऊं अपने मैं जज्बात आजकल 



*प्रो रवि नगाइच 


किसको सुनाऊं अपने मैं जज्बात आजकल 
बदले  हुए शहर के हैं हालात आजकल 


बस्ती  के सारे नामवर आगे  खड़े हुए
 बटने लगी है  जिस जगह खैरात आजकल 


दिल में उतर गए हो तुम महसूस हो रहा 
कटते नहीं है बिन तेरे  दिन रात आजकल 


महका गई बदन मेरा  खुशबू  भरी हवा
निकली है तेरी याद की बारात आजकल 


तहजीब और तमीज  की बातें फिजूल है 
अच्छे दिनों की हो गई शुरुआत आजकल 


कागज की  एक कश्ती जो मैने बनाई थी 
उसको  चलाने आ गई बरसात आजकल


लफ्जों की करवटें मुझे खामोश कर रही 
कैसे कहूं जुबान से हर बात आजकल 
*शास. इंजी कॉलेज उज्जैन


 


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