*सुरजीत मान जलईया सिंह
पढ़े-लिखे कुछ समझ रहे हैं मूर्खता का काम।
किन्तु साधना साध रही है शक्तिपुंज को राम।
बिना जलाये दीप कभी जो नहीं निकलते घर से।
आज उन्हीं के ना जाने क्यों उतरा पानी सर से?
पूछ रहे हैं बार-बार क्या होगा दीप जलाकर।
दीप लिए जो भटक रहे हैं धाम धाम से धाम।
पढ़े-लिखे कुछ समझ रहे हैं मूर्खता का काम।
किन्तु साधना साध रही है शक्तिपुंज को राम।
ढूंढ रहे नित रामचरित की चौपाई में जीवन।
गीता के श्लोक कों जो धारण करता है मन।
पता नहीं फिर उसके मन में प्रश्न पनपता है क्यों?
जो मन्दिर में करें आरती रोज सुबह और शाम।
पढ़े-लिखे कुछ समझ रहे हैं मूर्खता का काम।
किन्तु साधना साध रही है शक्तिपुंज को राम।
नित प्रातः की बेला में जो खुद करता है ध्यान।
वही बांटने निकला है अब उल्टा सीधा ज्ञान।
सब प्रयत्न व्यर्थ थे उसके माधकता के मध के।
मैंने आज रात देखा था चमक रहा है भाम।
पढ़े-लिखे कुछ समझ रहे हैं मूर्खता का काम।
किन्तु साधना साध रही है शक्तिपुंज को राम।
*सुरजीत मान जलईया सिंह
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