म.प्र. साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा नारदमुनि पुरस्कार से अलंकृत

सनातन की देहरी पर.... मिट्टी का ज्योति-गान -डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला

सनातन की देहरी पर.... मिट्टी का ज्योति-गान

मन जब अयोध्या हो जाता है, अन्न के शृंगार से सजी हुई धरती नवरंग के हिंडोले में झूलने लगती है, अमावस को एक तरफ ठेलती हुई दीपक की नन्ही सी लौ तमस और जड़ता को पराजित कर अपनी मुस्कान बिखेर देती है, दुःख और दरिद्रता की छाती पर चढ़कर जब महालक्ष्मी का आकर्षण जन-जीवन को उत्सव के रंग में रंग देता है, तब आता है दिवाली का त्यौहार। अयोध्या में श्रीराम का आना मन में विजय के उल्लास का आना तो है ही, लेकिन दिवाली सनातन की देहरी पर मिट्टी का ज्योति-गान भी है।

हमारी मिट्टी कभी कृतघ्न नहीं हुई। वह जितनी बार भी रौंदी गई, उतनी ही बार पूरी जिद से उठ खड़ी हुई। स्नेह की बाती को सबसे पहले उसीने अपने हिवड़े में जगह दी, उसे सिर हिलाते हुए आकाश को चूम लेने की इच्छा-शक्ति दी। मिट्टी का छोटा सा दीया यही कहानी दोहराता हुआ आ खड़ा होता है बार-बार। वह निवेदित होना जानती है उसके प्रति, जिसने उसे बनाया और प्राणों से सींचा। मिट्टी का जलता हुआ दीया भगवान् के प्रति कृतज्ञता का दीया है। वह इजहार है संतोष का, आत्मविश्वास का। मिट्टी का दीया हमारी वह जिजीविषा भी है, जो सतत बनी रहना चाहती है।

दिवाली के महापर्व पर गन्ने की पूजा केवल इसलिये नहीं, कि वह उगाई गई नई फसल है। वह जीवन के उस वंश की पूजा भी है, जो दुःख की पड़ी हुई गाँठों के बाद भी रस से भरा हुआ है। नये धान की पूजा भी केवल इसलिये नहीं, कि वह बाज़ार में चमक भर देगा। नया धान हमारी ऊर्जा है, हमारी संजीवनी है। इसीलिये बड़े-बूढ़े कहते चले आये हैं कि जन्म के साथ जो कुछ हमें मिला, उसके लिये कृतज्ञ होने का महान् उत्सव है दिवाली। जाति-वर्ण, अमीर-गरीब, पढ़े-बिना पढ़े, साधु-असाधु, बच्चे-बूढ़े, सबके ऊपर दिवाली का उजास समान भाव से छा जाता है और संदेश देता है कि जो कृतज्ञ है, वही प्रकाशमान है और धनी है।

दिवाली हर साल आती है। कैसी भी विपत्ति हो या संकट के बादल छाये हों, निराशा के अंधकार को चीरती हुई दिवाली आती ही है और हमारे दुर्भाग्य को लपेट कर किसी अज्ञात गह्वर में फेंक देती है। फिर शुरू होता है जीवन का नया बहीखाता, फिर बुनने लगता है मीठे रिश्तों का स्वच्छ आकाश। उत्साह और उमंग की पाठशाला में फिर गूँजने लगती है सुख और समृद्धि की बारह खड़ी। मन के मंदिर में फिर सुनाई देने लगता है जीवन के उत्सव का नया मंगलाचरण।

प्रत्येक त्यौहार का अपना मनोविज्ञान होता है। दिवाली का भी अपना मनोविज्ञान है। दिवाली धनतेरस के साथ आती है। सबका धन अलग-अलग है। कोई सोने-चाँदी को धन मानता है, कोई कलम-दवात को। कोई सुख-भोग के संसाधनों को धन मानता है, कोई मन की शान्ति को। लेकिन धनतेरस कहती है-'पहला सुख निरोगी काया'। महाकवि कालिदास भी कहते हैं-'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' धर्म का सबसे प्रमुख साधन तो शरीर ही है। इसलिये सबसे पहले अपने शरीर को साधने की सलाह दी जाती है। शरीर असाधारण सत्ता है, जहाँ मन और प्राण गति करते हैं। लक्ष्मी स्वस्थ देह में और स्वच्छ गेह में ही निवास करती है। धनतेरस अपने परिवेश में स्वास्थ्य की चेतना को जगाने का दिन है। स्वास्थ्य ही तो धन है। इसी पर तो रूप की प्रतिष्ठा है।

रूप चौदस रूपान्तरण के आह्वान का त्यौहार है। किसका रूपान्तरण? हमारे तन-मन का, हमारी चेतना का, हमारे घर-परिवार का, हमारे राष्ट्र का और राष्ट्र के धर्म का। इतने बड़े अनुष्ठान के लिये कितना बड़ा दिन सौगात में दे गये हमारे पूर्वज? और हम अपने चेहरों पर केवल उबटन ही मलते रह गये। प्रत्येक मनुष्य के रूप की अपनी लक्ष्मी है, उसका अपना वैभव है। जब तक वह लक्ष्मी नहीं जागेगी, तब तक मन के आँगन में प्रेम का दीया कौन संजोयेगा? प्रेम का उजास कहाँ होगा? मन का आकाश सितारों से जगमग न हो, तो समझ लो, दिवाली आई और मुँह फेर कर चली भी गई।

दिवाली की साँझ लक्ष्मी आती है घर के द्वार पर। लोग किवाड़ खुला छोड़ देते हैं। वह अकेली नहीं आती, हमारी इच्छाओं के उत्सव-पुरुष गणेश और विवेक की जाग्रत देवी सरस्वती भी साथ-साथ आते हैं। ध्यान रहे, गणेश जी और सरस्वती का साथ छोड़कर लक्ष्मी को रहना भी पसंद नहीं। गणेश जी हमारी मनोकामनाएँ पूरी करने में देर नहीं लगाते, लेकिन सरस्वती न हो, तो बुद्धि मोह के अंधेरे में चली जाती है और अकेली लक्ष्मी का साथ अहंकार से लाद देता है हमें। गणेश जी के साथ एक चूहा है। वह आपकी इच्छाओं को कुतर डालेगा, यदि आपका विवेक जाग्रत नहीं। सरस्वती के पास वह वीणा है, जो अपनी झंकार से जगाये रखती है हमें। पार्थिव सौन्दर्य के सुमंगल प्रतीक कमल पर खड़ी हुई लक्ष्मी जब अपना सम्पूर्ण वैभव लुटा ही रही हो, तो हममें अहं का नहीं, कृतज्ञता का ही भाव हो।

दिवाली का आगाज होते ही ऋतुएँ आपस में गले मिलने लगती हैं। अमावस की कसौटी पर पुरुषार्थ के खरे सोने की लकीर खिंच जाती है। आकाश से देव-जागरण के मुहूर्त झरने लगते हैं। निसर्ग की साधना का पीयूष सबमें बराबर-बराबर बँटने लगता है। आदमी का मन कुबेर हो जाता है। वातायन मयूरपंखी हो जाते और अन्नपूर्णाएँ मधु की गंध से सुवासित होने लगती हैं। मंगल वेलाएँ सुरम्य अल्पनाओं से सजने लगती हैं और हमारा चित्त प्रेम और शान्ति के जलाशय में अवगाहन के लिये उत्सुक होता है। सच मानिए, धरती नृत्य करने लगती है और आकाश से पारिजात के फूल बरसने लगते हैं।

इस बार दिवाली यह संदेश लेकर आ रही है कि पैसे के पीछे ही भागते रहोगे, तो पूरी शानो-शौकत में भी अकेले पड़ जाओगे। आह्वान करो प्रेम और सामंजस्य की लक्ष्मी का। आह्वान करो एकता और अखंडता की लक्ष्मी का। कहो कि हे महालक्ष्मी! मनुष्यता दे, एक-दूसरे को सहन करने और साथ निभाने की शक्ति दे। ऐसा वर दे कि हम सब मिल-जुलकर शान्ति से रह सकें।

आओ, हम फिर से नई आशा के सुर सजाएँ। जीवन के गान की मधुर धुन तैयार करें। अपनी साँसों को नई लय दें। शुभकामनाओं की फुलझड़ियों के बीच जब आत्मविश्वास का अनार फूटेगा,तब इन्द्रधनुषी रंगों की बहारें गुनगुनायेंगी- 'मंगलघट ढलके, ज्योति-कलश छलके।'
डॉ. मुरलीधर चाँदनीवाला, रतलाम


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