म.प्र. साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा नारदमुनि पुरस्कार से अलंकृत

आंखों देखी -भारतीय मातृभाषा अनुष्ठान: बोलियों और भाषाओं के वैभव का साहित्यिक उत्सव


मध्य प्रदेश अपनी गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत और भाषाई विविधता के लिए विख्यात है। हाल ही में मध्य प्रदेश संस्कृति मंत्रालय ने एक ऐतिहासिक आयोजन के माध्यम से अपनी मातृभाषाओं को गौरवान्वित किया। भोपाल के रवींद्र भवन के विभिन्न सभागारों में, 14 और 15 सितंबर को मध्य प्रदेश संस्कृति मंत्रालय के तत्वावधान में, साहित्य अकादमी सहित अन्य सहयोगी संस्थाओं के साथ मिलकर 'भारतीय मातृभाषा अनुष्ठान' का भव्य आयोजन हुआ। यह दो दिवसीय समारोह केवल साहित्यिक उत्सव तक सीमित नहीं रहा, अपितु यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बना, जहां भाषा, बोली और परंपराओं के संरक्षण हेतु गहन चिंतन-मंथन हुआ। इस अनुष्ठान की अनुपम विशेषताओं ने इसे मध्य प्रदेश के साहित्यिक इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में स्थापित किया।

इस आयोजन की रूपरेखा संस्कृति संचालनालय द्वारा प्रारंभ में 40 वर्ष से कम आयु के युवा रचनाकारों को ध्यान में रखकर तैयार की गई थी, जिसका उद्देश्य नवोदित पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ते हुए मातृभाषा संरक्षण में सक्रिय करना था। किंतु, साहित्य अकादमी के अभी तक सबसे सक्रिय निदेशक डॉ. विकास दवे की दूरदर्शिता ने इस आयोजन को और अधिक समावेशी स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने तर्क दिया कि वरिष्ठ साहित्यकारों की सहभागिता से युवाओं को मार्गदर्शन प्राप्त होगा, जिससे वर्तमान पीढ़ी भविष्य को सशक्त दिशा दे सकेगी। इस परिवर्तन ने आयोजन को अनुभव और उत्साह के संगम का अनुपम मंच बना दिया। परिणामस्वरूप, मध्य प्रदेश के सुदूर कोनों से साहित्यकारों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया, और यह समारोह एक बड़ा सांस्कृतिक मेला बन गया।

'भारतीय मातृभाषा अनुष्ठान' नाम स्वयं में इसके सार को प्रकट करता है। यद्यपि यह आयोजन मुख्यतः मध्य प्रदेश के साहित्यकारों के लिए था, किंतु इसमें भारतीय भाषाई वैविध्य का दर्पण स्पष्ट परिलक्षित हुआ। लगभग एक हजार साहित्यकारों की सहभागिता, जो स्वयं में एक अभूतपूर्व उपलब्धि है, जिसने इसकी भव्यता को रेखांकित किया। तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो वर्ष 2018 के साहित्योत्सव में मात्र सौ साहित्यकारों की उपस्थिति थी, जो इस अनुष्ठान की सफलता को और अधिक उज्ज्वल बनाती है। यह अनुष्ठान हिंदी के साथ-साथ सहयोगी बोलियों और भाषाओं के संरक्षण, संवर्धन और प्रचार पर केंद्रित था। इसमें 20 वर्षीय युवा लेखकों से लेकर 90 वर्षीय वयोवृद्ध साहित्यकारों तक ने भाग लिया, जिन्होंने मातृभाषा से संबंधित विविध विषयों पर गहन विमर्श किया। इस बहुरंगी सहभागिता ने आयोजन को जीवंत ऊर्जा से सराबोर कर दिया, जहां तीन पीढ़ियों का संवाद और सांस्कृतिक निरंतरता की भावना प्रबल हुई। युवाओं की अधिक उपस्थिती भविष्य के लिए आश्वस्ति प्रदान कर रही थी।

शुभारम्भ और समापन समारोह तथा सम्मानों का उल्लेख अंत में मैं संक्षेप में ही करूंगा, क्योंकि ये किसी भी साहित्यिक आयोजन के अभिन्न अंग हैं, जो रचनाकारों की सृजनशीलता को मान्यता और प्रोत्साहन प्रदान करते हैं। किंतु इस अनुष्ठान की प्राणशक्ति थी भाषाओं और बोलियों पर केंद्रित संवाद। मध्य प्रदेश की छह प्रमुख बोलियां-मालवी, निमाड़ी, बुंदेली, बघेली, गोंडवी और भीली। हिंदी के साथ समानांतर रूप से समृद्ध हैं। इनमें लोकजीवन की मधुरता और सरलता समाहित है, जो सदियों से मौखिक परंपराओं के माध्यम से जीवित रही हैं। इसके अतिरिक्त, प्रदेश में संस्कृत, मराठी, उर्दू और सिंधी जैसी चार प्रमुख भाषाएं भी प्रचलित हैं, जो विभिन्न समुदायों को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोती हैं। ये भाषाएं केवल मध्य प्रदेश ही नहीं पूरे देश की सांस्कृतिक बहुलता का जीवंत प्रमाण हैं।

तथापि, वर्तमान में युवा पीढ़ी की भाषाई प्रवृत्तियां चिंता का विषय बनी हुई हैं। आज का युवा वर्ग प्रायः अंग्रेजी मिश्रित हिंदी, अर्थात् हिंग्लिश, का उपयोग करता है। वे हिंदी में बोलते तो हैं, किंतु लिखते समय रोमन लिपि का सहारा लेते हैं। देवनागरी लिपि को पढ़ने की समझ तो उन्हें है, परंतु लिखने का प्रयास या तो नहीं करते या उन्हें इसका ज्ञान ही नहीं है। यह स्थिति मातृभाषा संरक्षण के लिए एक गंभीर चुनौती है, क्योंकि लिपि भाषा की पहचान का आधार होती है। इस अनुष्ठान का मूल लक्ष्य यही चिंता थी मातृभाषाओं को आधुनिकता के प्रभाव से सुरक्षित रखना और युवाओं को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ना। आयोजन में इस विषय पर गहन विचार-विमर्श हुआ, और साहित्यकारों ने सुझाव दिया कि शिक्षा प्रणाली में बोलियों को अनिवार्य किया जाए, ताकि युवा अपनी श्रेत्रिय बोली,भाषा को लिखित रूप में भी जीवित रख सकें।

बोलियों पर विशेष बल दिया गया, क्योंकि इनके लिए कोई लिखित व्याकरण उपलब्ध नहीं है। ये केवल श्रवण परंपरा से जीवित रही हैं। किंतु डिजिटल युग में, जहां लिखित और प्रकाशित सामग्री का महत्व है, बोलियों के संरक्षण के लिए लेखन और प्रकाशन एक अनिवार्य दायित्व बन गया है। हिंग्लिश का बढ़ता प्रभाव इन बोलियों को निगलने को तत्पर है, और यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो ये बोलियां विलुप्ति के कगार पर पहुंच सकती हैं। एक विशेष चिंतन सत्र में इस विषय पर सार्थक मंथन हुआ कि पाठ्यपुस्तकों में बोलियों को कैसे समाहित किया जाए। उदाहरणार्थ, स्कूली पाठ्यक्रम में मालवी या बुंदेली की लोककथाओं को शामिल कर बच्चों को उनकी स्थानीय बोली से परिचित कराया जा सकता है। इससे न केवल भाषाई विविधता बचेगी, बल्कि सांस्कृतिक पहचान भी सुदृढ़ होगी। सत्र में यह भी चर्चा हुई कि परिवारों में लोककथाओं और गीतों को मौखिक रूप से साझा कर उन्हें लिखित रूप में संग्रहित किया जाए, ताकि ये एक पीढ़ी से दूसरी और तीसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित हो सकें।

इसके अतिरिक्त, नारी विमर्श, पर्यावरण विमर्श और सामाजिक सद्भाव जैसे विषयों पर भी गहन चिंतन हुआ। नारी विमर्श में महिलाओं की भाषाई अभिव्यक्ति पर बल दिया गया, जहां उनकी बोलियों में निहित सशक्तिकरण की भावना को रेखांकित किया गया। पर्यावरण विमर्श में भाषा को पर्यावरण संरक्षण का सशक्त माध्यम बताया गया, जहां लोकभाषाओं में निहित पर्यावरणीय कहावतों और कथाओं को जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से जोड़ा गया। सामाजिक सद्भाव पर चर्चा में भारतीय संस्कृति के मूल स्वर को उभारा गया, जहां विभिन्न भाषाएं और बोलियां एक-दूसरे की पूरक हैं। पूर्व और वर्तमान साहित्य तथा लोक परंपराओं पर विचार-मंथन हुआ, और इनके संयोजन के लिए सुझाव दिए गए। सभी साहित्यकारों ने इन विचारों पर सहमति व्यक्त की, जो आयोजन की सार्थकता को दर्शाता है।

एक उल्लेखनीय पहलू यह था कि विमर्श केवल मंचासीन वक्ताओं तक सीमित नहीं रहे। उपस्थित श्रोताओं ने भी अपने विचार साझा किए, जिससे चर्चाएं अधिक जीवंत और समावेशी बनीं। यह लोकतांत्रिक दृष्टिकोण आयोजन की सफलता का मूल मंत्र था। एक विशेष सत्र में भाषा और बोलियों पर केंद्रित कवि सम्मेलन आयोजन का सर्वोच्च आकर्षण बना। इसमें संस्कृत, मराठी, सिंधी, उर्दू, मालवी और बुंदेली के रचनाकारों ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। मंच से गूंजती विविध ध्वनियां श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर गईं। बोलियों और भाषाओं ने श्रोताओं ने भावनाओं की गहराई को स्पर्श किया। श्रोता इन रचनाओं का भाव समझ रहे थे, जो यह सिद्ध करता है कि सभी भारतीय भाषाएं और बोलियां हिंदी से गहन रूप से जुड़ी हैं। यह प्रयास भाषाओं को जीवंत रखने का उत्कृष्ट प्रयार रहा, क्योंकि विविधता का यह मंच सांस्कृतिक एकता का संदेश दे रहा था।

बोलियों और हिंदी की निकटता पर भी गहन विमर्श हुआ। विद्वानों ने बताया कि बोलियां हिंदी की जड़ें हैं, और इन्हें सशक्त कर ही हिंदी को संरक्षित किया जा सकता है। नागरिक कर्तव्यों के अभिमुखीकरण में भाषा को सामाजिक दायित्व से जोड़ा गया, जहां नागरिकों को अपनी मातृभाषा के प्रति उत्तरदायित्व का बोध कराया गया। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भाषा पर सत्र में डिजिटल मंचों पर हिंग्लिश के प्रभाव को चिंताजनक बताया गया, और सुझाव दिया गया कि मीडिया में लोकभाषाओं को स्थान मिलना चाहिए। बाल साहित्य की भाषा पर चर्चा में बच्चों के लिए सरल और आकर्षक भाषा का महत्व रेखांकित हुआ, जहां बोलियों की कहानियां उनकी कल्पनाशीलता को प्रेरित कर सकती हैं। भारतीय साहित्य और स्व के बोध जैसे विषयों में भाषा को आत्म-बोध का माध्यम बताया गया, जहां साहित्य के माध्यम से व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक पहचान को गहराई से समझता है।

ये सभी विमर्श भाषा, संस्कृति, संस्कार और सभ्यता से संनादित थे, और विशेष रूप से युवाओं के लिए अत्यंत प्रेरणादायी सिद्ध हुए। युवाओं ने इन सत्रों में उत्साहपूर्वक भाग लिया, जो भविष्य के लिए शुभ संकेत है। हिंदी और लोकभाषाओं में कविता के क्षेत्र में अग्रसर युवाओं को वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ मंच साझा करने का अवसर प्राप्त हुआ, जो उनके रचनात्मक विकास के लिए मील का पत्थर साबित होगा। इस आयोजन ने यह सिद्ध किया कि मातृभाषाओं का संरक्षण सामूहिक प्रयासों से संभव है, और यह भारतीय सांस्कृतिक एकता को और सुदृढ़ करेगा।

अनुष्ठान का शुभारंभ पद्मश्री विष्णु पंड्या पूर्व अध्यक्ष गुजरात साहित्य अकादमी अहमदाबाद की अध्यक्षता में हुआ एवं इंदर सिंह परमार मंत्री उच्च शिक्षा विभाग मध्य प्रदेश के मुख्य अतिथि रहे। समापन सत्र को विशेष गरिमा प्रदान की मध्यप्रदेश के यशस्वी और लोकप्रिय मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने। साथ ही उपस्थित रहे संस्कृति मंत्री धर्मेन्द्र सिंह लोधी, लोकनिर्माण मंत्री राकेश सिंह। मुख्य मंत्री डॉ यादव ने समापन सत्र में विभिन्न श्रेत्रों से हिंदी के लिए समर्पित रूप से कार्य करने वाली देश विदेश की दस विभूतियों को सम्मानित भी किया। जो इस अनुष्ठान को अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्रदान करता है।

संस्कृति विभाग के इस सम्पूर्ण आयोजन में भागीदारी तो कई संस्थाओं की रही लेकिन सबसे अधिक भागीदारी या कहें कि आयोजन में जो उपस्थिति साहित्यकारों की रही उसका श्रेय जाता है मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी भोपाल और उसके सक्रिय निदेशक डॉ विकास दवे को, और उनके विशेष सहयोगी राकेश सिंह को, और उनकी सहयोगी टीम को, जिनका जीवंत सम्पर्क प्रत्येक उपस्थित साहित्यकार से रहा और इतने बड़े आयोजन को बहुत कम समय में कर लिया।

भविष्य में इस भारतीय मातृभाषा अनुष्ठान का प्रभाव दूरगामी होगा। यह अनुष्ठान न केवल मध्य प्रदेश के साहित्यकारों को एक मंच पर लाया, बल्कि पूरे देश में भाषाई संरक्षण की प्रेरणा का स्रोत बनेगा। भविष्य में पूरे देश में ऐसे आयोजन और अधिक होने चाहिए, ताकि हमारी बोलियां और भाषाएं जीवित रहें, और युवा पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से अटूट रूप से जुड़ी रहे। मैंने स्वयं इस आयोजन में सहभागिता की और अपनी रचनात्मक प्रस्तुति दी, जिसने मुझे भाषाई वैविध्य की गहनता को समीप से अनुभव करने का सौभाग्य प्रदान किया। यह सांस्कृतिक उत्सव हमें सदैव यह स्मरण कराता रहेगा कि भाषा हमारी आत्मा का स्वर है, और उसकी रक्षा हमारा परम कर्तव्य है।

संदीप सृजन
संपादक -शब्द प्रवाह

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