कुंभ पर्व एक धार्मिक आयोजन है, जो भारत में चार स्थानों - प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में पवित्र नदियों के तट पर आयोजित किया जाता है। कुंभ के संबंध में यूनेस्को का मत है कि उपर्युक्त चारों स्थानों पर लगने वाला कुंभ मेला धार्मिक उत्सव के रूप में सहिष्णुता और समग्रता को दर्शाता है।
प्रसिद्ध विद्वान मार्क ट्वेन ने कुंभ आयोजन को 'देवालय' कहा है। कुंभ विश्व का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आयोजन है। 3 दिसंबर, 2017 को दक्षिण कोरिया के जेजू में यूनेस्को के अधीनस्थ संगठन 'अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा के लिए गठित अंतर्सरकारी समिति' की 12 वीं बैठक में 'कुंभ मेला' को 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिनिधि सूची' (रिप्रेजेंटेटिव लिस्ट आफ इंटैन्जिबिल कल्चरल हेरिटेज ह्यूमिनिटी) में सम्मिलित किया गया है। प्रयागराज के (गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती) संगम तट पर लगने वाले कुंभ मेले का विशेष महत्व है। उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने 2019 में संगम तट पर आयोजित कुंभ के नाम में परिवर्तन करते हुए 'अर्धकुंभ ' को कुंभ और 'कुंभ' को महाकुंभ का नाम दिये जाने का निर्णय लिया। मेला को विशिष्ट बनाने के लिए 'एक टैगलाइन' तय कर दी, जिसे 'सर्वसिद्धिप्रद कुंभ' नाम दिया गया। कुंभ को 'अमृत महोत्सव' भी कहा जाता है।
कुंभ की पौराणिकता
कुंभ की पौराणिकता एवं उसकी महत्ता वेदमंत्रों के दृष्टा, ज्ञान - विज्ञान के अनुसंधानकर्ता हमारे ऋषियों - मनीषियों की वाणी से स्वयं सिद्ध है। कुंभ शब्द की व्युत्पत्ति कुमि पूर्णे धातु से हुई है -
कुम्भयति अमृतेन पूरयति सकल क्षुत्पिपासादि द्वंद्वजातम् निर्वतयित इति कुम्भः।
अर्थात जो अमृतमय जल से पूर्ण करता हो, उसे कुंभ कहते हैं। यह पर्व भी मानव - जीवन के अनेकानेक सांसारिक द्वंद्वों, बाधाओं को दूर करता हुआ, जीवन रूपी घट को ज्ञानामृत से भर देता है, इसलिए 'कुम्भ' कहा जाता है। कुंभ उस कालविशेष को कहते हैं. जो आकाशमण्डल में ग्रह - राशि के योग से होता है।
सर्वप्रथम 'कुम्भ' का उल्लेख भारतीय आदिग्रंथ वेदों के अनेक मंत्रों में मिलता है, जिससे कुम्भ पर्व की पुरातनता स्वतः सिद्ध होती है -
जघानि वृत्रं स्वधितिर्वनेव रूरोज पुरो अरदन्न सिन्धून्।
बिभेद गिरिं नवभिन्न कुम्भभागा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः।।
अर्थात कुंभ पर्व में जाने वाला मनुष्य स्वयं दान - होमादि सत्कर्मों से अपने पापों को वैसे ही नष्ट करता है, जैसे कुठार वन को काट देता है। जिस प्रकार गंगा नदी अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुंभ पर्व मनुष्य के पूर्व संचित कर्मों से प्राप्त हुए शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन घड़े की भाँति बादलों को नष्ट - भ्रष्टकर संसार में सुवृष्टि करता है।
अथर्ववेद के एक मंत्र में कुम्भ के चार स्थानों का उल्लेख है। ब्रह्मा जी कहते हैं - हे मनुष्यो! मैं तुम्हें ऐहिक तथा दैविक सुखों को देने वाले चार कुम्भ पर्वों का निर्माण कर चार स्थानों - हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में प्रदान करता हूँ -
चतुरः कुम्भांश्चचतुर्धा ददामि क्षीरेण पूर्णान् उदकेन् दध्मः।
(अथर्ववेद 4/34 /7)
कुंभ का अपना धार्मिक, पौराणिक, सांस्कृतिक मह्त्व तो है ही, इसका सामाजिक, आर्थिक,वैज्ञानिक और राजनीतिक महत्व भी कम नहीं है। यह हमें एक-दूसरे से जोड़ने का पर्व है, जिसके केन्द्र में है आस्था और विश्वास। यह जल के महत्व और उसकी वैज्ञानिकता से भी जुड़ा है। यह उत्तम कोटि का एक खगोलीय योग है। ग्रहों और नक्षत्रों के विशेष योग से कुंभ का प्रादुर्भाव होता है। इस विशेष योग में स्नान, दान - पुण्य और साधना का अपना अलग मह्त्व है। शास्त्रों में कहा गया है -
सहस्त्र कार्तिके स्नानं माघे शतानि च
वैशाखे नर्मदा कोटि कुम्भ स्नाने तत्फलम्।
अर्थात एक हजार कार्तिक स्नान, एक सौ माघ स्नान तथा नर्मदा में एक करोड़ वैशाख स्नान के समान एक कुम्भ का स्नान फल देता है।
कुंभ का पौराणिक संदर्भ समुद्र मंथन से जुड़ा है। विरोधी विचारधारा और मानसिकता के दो समुदाय जब मिलकर मंथन करते हैं, तो परिणाम को लेकर हिंसा और अराजकता भी अपना प्रभाव दिखाती है। कुछ ऐसा ही देवों और असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के समय भी हुआ होगा। कहते हैं कि समुद्र मंथन में कुल 14 रत्न निकले थे, जिनमें से अमृत को छोड़ कर शेष को देवों और असुरों ने आपसी सहमति से बाँट लिया था, किन्तु अमृत- कलश को लेकर अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई।
असुरों ने सोचा कि यदि इस अमृत कलश पर उनका आधिपत्य हो जाए, तो वे अमरत्व प्राप्त करेंगे और इनकी सत्ता अक्षुण्ण रहेगी। देवगण ऐसा कदापि नहीं चाहते थे। देवराज इन्द्र ने अमृत कलश बचाने के लिए अपने पुत्र जयंत को संकेत किया। वह अमृत कलश को लेकर भागा, इस बीच उसने हरिद्वार, प्रयाग. उज्जैन और नासिक में अमृत कलश को रखा, जहाँ अमृत की कुछ बूँदें छलकीं। ये स्थान अमृतमय हो गए और कुंभ रूप में अमृत महोत्सव की शुरुआत हुई।देवों और असुरों का युद्ध 12 दिन चला था तथा देवताओं का एक दिन एक मानव वर्ष के बराबर होता है, इसलिए प्रत्येक 12 वर्ष के बाद उक्त चारों पवित्र स्थलों पर कुंभ पर्व होता है, जिसे शंकरादि देवगण ने 'कुंभ योग' कहा है।
कुछ मनीषियों के अनुसार, देवताओं और असुरों मे,जो 12 दिवस (देव दिवस) युद्ध चला था, उसमें चार कुंभ पृथ्वी लोक में तथा आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें केवल देवगण ही प्राप्त कर सकते है, मनुष्य की वहाँ पहुँच नहीं है -
देवानां द्वादशाहोभिर्मत्यैंर्द्वादशवत्सरैः।
जायंते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्ययाः।
परंपरागत रूप से इन स्थानों पर कुंभ के आयोजन आदि को जगतगुरु शंकराचार्य ने व्यवस्थित स्वरूप दिया। शास्त्रों के अनुसार, जिस समय बृहस्पति मेष राशि पर स्थित हो तथा चंद्रमा और सूर्य मकर राशि पर हों, उस समय अमावस्या को तीर्थराज प्रयाग में कुंभ पर्व का योग होता है।
मेषराशिं गते जीवे मकरे चंद्र भास्करौ।
अमावस्यां तदा योगः कुम्भाख्यस्तीर्थ नायके।।
ऐसे ही अन्य स्थानों के लिए कुंभ योग पूर्वनिर्धारित है।
कुंभ की दार्शनिकता
कुंभ का अर्थ है घट या 'कलश' ।लौकिक जगत में कुंभ का निर्माण कुंभकार 'चाक' पर पंचतत्वों के माध्यम से करता है। सृष्टि का सृजन ब्रह्मा भी पंचतत्वों से करते हैं। सृष्टि में जल ही जीवन है। घड़े में जल रखने की परंपरा आदिकाल से है। कुंभ के विषय में वेदों में दार्शनिक विवेचन निम्नवत मिलता है -
कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाहितः।
मूल त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः।।
कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोSथ यजुर्वेदो सामवेदो ह्यथर्वणः।।
अर्थात कलश के मुख में भगवान विष्णु, कण्ठ में रुद्र, मूल में ब्रह्मा, मध्य भाग में सभी देवियाँ तथा कुक्षि (अन्तवस्था) में संपूर्ण सागर, पृथ्वी में निहित सप्तदीप तथा चारों वेदों का समन्वयात्मक स्वरूप विद्यमान है।
मानव शरीर भी एक कुंभ के समान है।आत्मा के अतिरिक्त भी मानव शरीर पंचामृत से आपूर्व है। ये पाँचों महाभूत - पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश - पूर्णतया कभी विनष्ट नहीं होते। मानव शरीर रूपी कुंभ से ही अमरत्व की प्राप्ति संभव है। इसी अमृतत्व की प्राप्ति के लिए कुंभ पर्व मनाया जाता है। शरीर के विद्यमान रहने पर भी ब्रह्म रूप में अवस्थित हो जाना ही अमृत की प्राप्ति है। मानव के समस्त पुरुषार्थों (धर्म.,अर्थ ,काम, मोक्ष) के पूर्ण होने का साधन यह कुंभ पर्व है. इसका शास्त्रों में उल्लेख भी है।
समुद्र - मंथन वास्तव में अपने आपका ही मंथन है। इसकी कथा महाभारत के आदि पर्व, भागवत पुराण. विष्णु पुराण, पद्म पुराण, अग्नि पुराण, स्कंद पुराण और शिव पुराण में मिलती है। शास्त्रीय विवेचन के अनुसार शरीर रूपी समुद्र से जो चौदह 'रत्न' है, उनमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि है चित और अहंकार के प्रतीक हैं।
स्वामी चिदानन्द सरस्वती ने कहा - '' कुंभ दर्शन है, प्रदर्शन नहीं है। कुंभ हमारी ताकत है, जिसके संरक्षण की आवश्यकता है। कुंभ सागर मंथन नहीं, अपितु स्वयं के मंथन की यात्रा है, जो स्वयं को स्वयं से तथा स्वयं से सर्व की यात्रा है। ''
कुंभ पर्व की ऐतिहासिकता
कुंभ पर्व का आरम्भ और प्रचलन कब से हुआ, इसका कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता। वेदों और पुराणों में इसका उल्लेख होने के कारण इसकी प्राचीनता असंदिग्ध है। कुंभ मेले का धार्मिक स्वरूप क्रमशः परिवर्तित होता रहा और यह देश का ही नहीं, संपूर्ण विश्व का सबसे बड़ा आयोजन बन गया।
कतिपय विद्वान गुप्तकाल से कुंभ के आयोजन को सुव्यवस्थित होना बताते हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने 'भारत वर्णन' में कुंभ मेले की चर्चा की है। उसके अनुसार प्रामाणिक तथ्य सम्राट हर्षवर्द्धन के राज्यकाल (617 - 647ई०) के समय से प्राप्त होते हैं, जिसका वर्णन बाणभट्ट के 'हर्षचरित' में भी मिलता है। ह्वेनसांग ने हर्षवर्द्धन की दानवीरता की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि राजा हर्षवर्द्धन हर पाँच वर्ष में नदियों के संगम पर एक बड़ा आयोजन करते थे, जिसमें वे अपना पूरा कोष गरीबों और धार्मिक लोगों को दान में देते थे।
कुंभ स्नान की वैज्ञानिकता
हिन्दू समाज के पर्व - उत्सव के पीछे ठोस वैज्ञानिक आधार होता है। युगों-युगों से समाज को अनुप्राणित कर रहे कुंभ पर्व के साथ भी वैज्ञानिक रहस्य छिपे हुए हैं।
संपूर्ण सृष्टि में दो प्रभावी अंश हैं, प्रथम आक्सीजन, जो प्राणवायु है और दूसरा कार्बन डाई आक्साइड, जिसके बढ़ने पर जीवन - संकट उत्पन्न होता है। पृथ्वी पर विभिन्न ग्रहों, उपग्रहों का प्रभाव पड़ता है, जिसके प्रभाव से किसी समय जीवनवर्द्धक तत्व बढ़ते हैं और कभी जीवन संहारक। इन ग्रहों का पृथ्वी के किस विशेष क्षेत्र में क्या और कैसा प्रभाव कब पड़ेगा, इसका अध्ययन हमारे देश में हजारों वर्ष पहले ऋषियों ने द्वारा कर किया गया है। जिस स्थान पर यह विशेष काल में यह प्रभाव अनुकूल सिद्ध हुआ, वह 'तीर्थ' बन गया और लोग वहाँ अनुकूल प्रभाव का लाभ लेने के लिए एकत्र होने लगे, फलतः विशिष्ट 'पर्व' कहे जाने लगे।
ज्योतिषीय गणनानुसार, अपने सौरमण्डल का 'बृहस्पति' जीवनधारक तत्त्वों का प्रमुख केन्द्र माना गया है। 'शनि' ग्रह जीवनसंहारक तत्त्वों का केन्द्र है। सृष्टि में 'सूर्य' केन्द्र है, जिसमें हमारे शास्त्रों के अनुसार द्वादशांश (1/12 भाग) छोड़कर शेष सब जीवनदायक है। सूर्य पर दिख रहे इस को काले धब्बों के रूप में आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी स्वीकारा है। धरती का उपग्रह चन्द्रमा पूर्णिमा की स्थिति में जीवनवर्द्धक होता है। मान्यता है कि पूर्ण चन्द्र से अमृत वर्षा होती है। अमावस्या के क्षीण स्वभाव के कारण इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है।
आज का विज्ञान कहता है कि ब्रहस्पति को सूर्य की परिक्रमा में 12 वर्ष लगते हैं और यह तथ्य हमारे ऋषि - मनीषियों को बहुत पहले से ही ज्ञात था , कुंभ ब्रहस्पति ग्रह की गति पर ही निर्भर करता है। ज्योतिष के अनुसार ब्रहस्पति 12 वर्ष में एक बार सभी 12 राशियों का भ्रमण करता है। इसी कारण से प्रत्येक 12 वर्ष में कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है।
कुंभ मेले में सूर्य, चंद्रमा और ब्रहस्पति जैसे ग्रहों की स्थिति का विशेष महत्व होता है, इन ग्रहों के विशेष संयोग से कुंभ मेले में स्नान - दान और पूजा-पाठ को अत्यंत शुभ माना जाता है।कुंभ मेले के बीच गंगा जल को औषधीकृत माना जाता है। शोध में ऐसा सिद्ध हुआ है कि इस समय गंगा का जल सकारात्मक ऊर्जा से भरा रहता है। इस काल में सभी नदियों को अमृतमयी माना जाता है।
कुंभ मेला उन विशिष्ट स्थानों पर आयोजित किए जाते हैं, जहाँ पर एक संपूर्ण ऊर्जा मण्डल तैयार किया गया था। चूँकि हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है, इसलिए यह एक 'अपकेन्द्रीय बल' वाली ऊर्जा उत्पन्न करती है। पृथ्वी के 0 से 33 डिग्री अक्षांश में यह ऊर्जा हमारे तंत्र पर मुख्य रूप से लंबवत तथा ऊर्ध्व दिशा में काम करती है। प्रायः 11 डिग्री अक्षांश पर तो ये ऊर्जाएं बिल्कुल सीधे ऊपर की ओर जाती हैं। इसलिए हमारे प्राचीन ऋषि - मुनियों ने गणना करके पृथ्वी पर ऐसे स्थानों को तय किया, जहाँ इस घटना का विशेष प्रभाव पड़ता है। इन स्थानों पर नदियों का समागम है, इसलिए इनमें स्नान का विशेष लाभ है।
हमारे देश में सदैव से मुक्ति ही परम लक्ष्य रहा है। हमारी संस्कृति में आंतरिक विज्ञान को जितनी गहराई से समझा गया है, ऐसी समझ पृथ्वी पर किसी दूसरी संस्कृति में नहीं मिलती।
विज्ञानी ऋषियों ने जल पर गहन शोध में पाया कि जल में अत्यंत विशेष की संरचनाएं निर्मित होती हैं जिसका आधार वहाँ का वातावरण, कॉस्मिक ऊर्जा और वहाँ स्थित भावनाएँ होती हैं, जल के विशेष क्रिस्टल आपकी ऊर्जाओं को प्रभावित करते हैं, क्योंकि हमारा शरीर 75 प्रतिशत से अधिक जल का भाग होता है, इसलिए जल के ये क्रिस्टल शरीर को बनाने - बिगाड़ने में बड़ा योगदान करते हैं। वस्तुतः कुंभ स्नान इसी खोज का परिणाम है, जो मानव मात्र के लिए प्रत्येक दृष्टि से कल्याणकारी है।
कुंभ का सामाजिक महत्व
कुंभ केवल धर्म - कर्म, पूजा-पाठ और साधना का आयोजन मात्र नहीं है, अपितु शस्त्र - शास्र और विद्वता से भी इसका संबंध है। इस अवसर पर ज्ञान - विज्ञान से जुड़े बड़े-बड़े आयोजन होते हैं। सम्मेलनों में धर्म, दर्शन, ज्योतिष, आयुर्वेद, साहित्य, संस्कृति और कला पर गंभीर मंथन होता है। इतना ही नहीं, इस कालखण्ड से जुड़ी विसंगतियों, विडंबनाओं और समस्याओं पर भी गंभीर चिन्तन - मनन होता है। संत समाज से जुड़ी अनूठी परंपराएं भी कुंभ में देखने को मिलती हैं। कुंभ मेले में अनेक संत - महात्माओं, साधु - सन्यासियों तथा धर्म गुरुओं के दर्शन होते हैं। शास्र के साथ शस्त्र की भी परंपरा इस अवसर पर देखने को मिलती है, जिसके मूल में धर्म - रक्षा का भाव रहता है। विविध प्रांतों की कला - संस्कृति देखकर मनोरंजन और ज्ञान में वृद्धि होती है। आशय यह है कि कुंभ में भाग लेकर हम मन - प्राण और बुद्धि का संतुलित समन्वय स्थापित कर अमृत रूपी चेतना को प्राप्त करते हैं। यह चेतना हमें साधना और संयम से मिलती है, जिसका सर्वोत्तम समय कुंभ काल है।
*कुंभ का वर्तमान स्वरूप*
कुंभ एक ऐसा महाआयोजन है, जिसकी विराटता अप्रतिम है। धर्म, अध्यात्म. ज्ञान - विज्ञान. भाषा, विचार, अंतरप्रांतीय संस्कृतियों एवं संस्कारों का समागम कुंभ में होता है। केवल भारत से ही नहीं, अपितु विदेशों से भी श्रद्धालु पर्याप्त संख्या में लोग आकर इस विराट आयोजन के साक्षी बनते हैं।
कुंभ कहीं भी आयोजित हो, एक लघु भारत वहाँ बसता है। विविधता में एकता का दृश्य वहाँ उपस्थित होता है।
धीरे-धीरे कुंभ के स्वरूप में परिवर्तन हुआ है। कुंभ अब केवल धर्म - आस्था का मेला नहीं रहा, अपितु इसके समान्तर मीडिया, ग्लैमर का भी कुंभ होने लगा है। व्यवसाय और वाणिज्यिक गतिविधियाँ भी इसमें सम्मिलित हैं। कुंभ अब इंटरनेट से जुड़ गया है। वेबसाइट बन गई है, एक क्लिक के साथ तमाम सूचनाएँ और जानकारियाँ कंप्यूटर स्क्रीन पर आ जाती हैं। सूचना एवं संचार के माध्यमों से मजबूती से जुड़ाव का हमें लाभ मिल रहा है।
प्रयागराज में संगम तट पर वर्ष 2025 में इस बार 13 जनवरी से 26 फरवरी तक महाकुंभ आयोजित होगा, जिसमें स्नान की प्रमुख तिथियाँ इस प्रकार होंगी -
13 जनवरी पौष पूर्णिमा
14 जनवरी मकर संक्रांति
29 जनवरी मौनी अमावस्या
12 फरवरी वसंत पंचमी
26 फरवरी महाशिवरात्रि
इनमें से 14 जनवरी,29 जनवरी और 3 फरवरी मुख्य राजसी स्नान होंगे, जिसमें दुनिया के सबसे बड़े जनसमागम के कई विश्व रिकॉर्ड बनेंगे। इन तीन दिनों में लगभग साढ़े छह करोड़ श्रद्धालुओं के प्रयागराज में होने संभावना है। लगभग सवा लाख जवानों की तैनाती की जा रही है। विश्व के बारह देशों की जनसंख्या से अधिक (कुल जनसंख्या सात लाख) 12 लाख कल्पवासी महाकुंभ में जप - "तप करेंगे। देश के चार महानगरों की जनसंख्या से अधिक प्रयागराज की जनसंख्या हो जाएगी। कुंभ में लगभग 50 करोड़ लोगों के आने का अनुमान है,जिसमें इजरायल, अमेरिका, फ्रांस, वियतनाम, इटली, म्यांमार, कनाडा आदि देशों के सैनिक, सैन्य प्रमुख, विशिष्ट अतिथि तथा अन्य गणमान्य पर्यटक सनातन धर्म से परिचित होने का लाभ उठाएंगे। संतों के द्वारा 1 लाख 11 हजार पौध - रोपण किया जाएगा। महाकुंभ में लगभग 50 हजार परिवारों को रोजगार मिलेगा, इसके लिए 1000 टूर गाइड, 600 स्ट्रीट वेंडर और 600 टैक्सी ड्राइवर भी प्रशिक्षित हुए हैं। कुंभ परिसर में प्लास्टिक के प्रयोग पर पूर्णतः प्रतिबंध रहेगा। आयोजन की भव्यता और दिव्यता को देखते हुए गूगल ने अपनी पालिसी बदलते हुए पहली बार किसी अस्थायी शहर को नेविगेशन (दिशा का निर्धारण) के लिए जोड़ा है। इस बार उत्तर प्रदेश सरकार ने 'हरित कुंभ' बनाने का संकल्प लिया है। इनमें मेला स्थल को प्रदूषण - कचरा मुक्त, 'जन - जन में कुंभ', 'घर - घर में कुंभ' कार्यक्रम संकल्पित किए गए हैं। मठ - मंदिरों में थाली और थैला पहुँचाए जाएंगे तथा कुंभ क्षेत्र में प्लास्टिक का कूड़ा - कचरा तथा दोना - पत्तल आदि नहीं रहेंगे।
कुंभ पर आधुनिकता का प्रभाव भले ही बढ़ा है, किन्तु इससे आस्था के अविरल प्रवाह में कोई अवरोध नहीं है। आधुनिक तकनीकी और सूचना तंत्र ने तो आस्थावानों के रास्ते को और सुगम बनाया है। कुंभ पर्व द्वारा हमारी संस्कृति को नए आयाम मिलते हैं और भारत की छवि दुनिया के समक्ष और गरिमामयी हो जाती है। निःसंदेह एकता, साम्य और चेतना का महाबोध करवाने वाला यह पर्व अतुलनीय है, अनुपम है,अप्रतिम है, अद्भुत है। अस्तु, सोच - विचार में अधिक न उलझते हुए प्रयागराज जाकर कुंभ स्नान का पुण्य फल अवश्य प्राप्त करें - प्रयागराज तीर्थ महान.....आओ चलें! कुम्भ स्नान ।
गौरीशंकर वैश्य 'विनम्र'
लखनऊ (उ.प्र.)
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