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भ्रष्टाचार का ग्रोथरेट (व्यंग्य) -राजेन्द्र परदेसी


देश आजाद हुआ। हम आजाद हुए। देश में विकास का पहिया घुमने लगा। सभी क्षेत्रों की तरह देश में भ्रष्टाचार ने भी गति पकड़ा। प्रारम्भ के कुछ वर्ष तक इसकी गति मंद थी, पर इसका ग्रोथ रेट बढ़ने लगा। रिश्तों के सहारे काम कराने और करने वाले भी इसका महत्ता को समझने लगे, इसीलिए भ्रष्टाचार का ग्रोथरेट बढ़ाने के उद्देश्य से रिश्तों को त्याग कर अर्थ का मार्ग पकड़ लिया। फिर भी शुरू में नैतिकता के वाइरस के रहते इसमें उस गति से विकास नहीं हो रहा था जैसा आज हो रहा है। क्योंकि उस समय काम करने वाला सीधे भ्रष्टाचार की राशि स्वीकार नहीं करते थे। बल्कि किसी न किसी को माध्यम अवश्य बनाते। अधिकारी अपने विश्वास पात्र किसी अधीनस्थ से तो नेता किसी मुंहलगे चमचे से।

इस व्यवस्था में एक बहुत बड़ा खोट था। बिचौलिया कभी-कभी अपने से अधिक स्वयं ही पचा जाता था। इस कारण कभी-कभी विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती। साथ ही इस प्रक्रिया में कुछ खास लोग ही सक्रिय रहते थे। इस कारण सुविधा से वंचित लोग यदा-कदा विरोध का स्वर भी उठाते रहते। जिससे व्यवस्था संबंधी प्रश्न खड़े हो जाते। अनेक संवैधानिक एवं राजनैतिक संकट उत्पन्न होने लगे। भ्रष्टाचार के विकास के हितैषियों को चिन्ता होना स्वाभाविक था। गम्भीर मंत्रणा करने के पश्चात् लोगों ने निर्णय लिया कि भ्रष्टाचार के अवरोधक तत्वों जैसे नैतिकता, संवेदनशीलता, आदि से गम्भीरता से निपटना ही होगा। इससे दूर लोगों को भी प्रगति करने का सुअवसर मिलने लगा।

ले-देकर काम कराने की सामाजिक मान्यता मिल गई। समय बितने के साथ-साथ भ्रष्टाचार विकास का मार्ग प्रस्तत होता चला गया। लोग भ्रष्टाचार की बात करने में किसी तरह का परहेज नहीं करते बल्कि काम न होने पर अपने लोगों को भ्रष्टाचार का सहयोग लेने की सलाह भी देते। परिणाम हुआ कि लोगों ने रिश्तों के बंधन को त्यागकर अर्थ तंत्र को अपनाना श्रेस्यकर समझा। फिर भी नैतिकता के वाइरस के कारण इस क्षेत्र का ग्रोथ उस गति से नहीं बढ़ा जिसकी लोगों ने आशा की थी।

क्योंकि काम को सम्पादित करने वाला व्यक्ति सीधे भ्रष्टाचार में नहीं दिखाई पड़ता था। बल्कि किसी और को माध्यम बनाये रहा जैसे अधिकारी अपने अधीनस्थ से तो नेता अपने किसी विश्वास पात्र से। पर इस व्यवस्था में खोट था। बिचौलिया भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा हिस्सा स्वयं हड़प लेता था। जिसके कारण कभी-कभी विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जात। इसी के कारण इसमें अनेक संवैधानिक पेंच थे। क्योंकि इस व्यवस्था में कुछ लोगों की ही सहभागिता रहती। जिसके कारण असंतुष्टों की संख्या बढ़ने लगी। सभी ने मिलकर राह ढूंढ निकाला। सरकारी तथा गैरसरकारी सभी जगह भ्रष्टाचार को सम्मानजनक शब्दों में स्थान दे दिया गया। साथ ही एक गोपनीय मंत्रणा कर यह निर्णय लिया गया कि भ्रष्टाचार को एक उद्योग का दर्ज़ा दिया जाये साथ ही इसके विकास के अवरोधक तत्व- नैतिकता और ईमानदारी के वाइरस को समाप्त करने का अभियान छेड़ा जाय।

बाजारवाद को बधाई देना होगा जिसने भ्रष्टाचार उद्योग के विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान किया है। लोगों को भौतिक सुख सुविधा की हर चीज़े आज किश्त पर सहजता से उपलब्ध कराके सरकार एवं बैंकों ने उत्प्रेरक कार्य किया है। जिससे लोग आय से अधिक खर्च करने का आनंद उठाने लगे। और आय-खर्च के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए भ्रष्टाचार उद्योग को प्रोत्साहित करने लगे।

अभी भी कुछ तत्त्व ऐसे है जो इस उद्योग के बढ़ते कदम से चिंतित है। यदा-कदा विरोध करते रहते हैं। पर यह देश हित में किसी प्रकार से नहीं है। ऐसे में यह हितकर होगा कि भ्रष्टाचार को बड़े उद्योग के रूप में प्रोत्साहित करने के लिए हर स्तर पर एक मंत्रालय बनाया जाये। जहाँ भ्रष्टाचार उद्योग को और अधिक आधुनिक बनाने का प्रयास भी सम्मिलित हो। जिससे भ्रष्टाचार का ग्रोथ रेट और तेजी से बढ़ सके और हम गर्व से कह सकेंगे कि हमारा सारा देश भ्रष्टाचारयुक्त तथा ईमानदारी मुक्त है।

-राजेन्द्र परदेसी, लखनऊ


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