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बांध (लघुकथा) -सविता दास 'सवि'


सीमा बिल्कुल ख़ामोशी से रोहन के बैग में उसके कपड़ो से लेकर सारा ज़रूरी सामान एक-एक करके भर रही थी। गला रुँधा हुआ था मानो कोई पत्थर गले में अटका हो,आंखों के कोनों में दो तरफ़ दो आँसूं रुके हुए थे,जैसे किसीने भरी बरसाती नदी को बांध दिया हो। 

बेटा बहुत दूर जा रहा है पढ़ने को। पहली बार इतनी दूर,जाने कितने दिनों के लिए जा रहा हो पढ़ाई के बाद अगर जॉब भी बाहर लग गई तो फिर घर लौटना हो ना हो। सीमा चाहती थी बेटा पढ़-लिख कर एक सफ़ल इंसान बने,समाज में उसका योगदान रहे। खुद शिक्षिका के रूप में छात्रों का मार्गदर्शन जैसे करती थी अपने बेटे को भी वैसे ही उच्च शिक्षा के इस स्तर तक लाई थी। सुनील ने पिता का हर फ़र्ज़ निभाया था । दोनों को बहुत उम्मीद थी बेटे से । आज जब जाने की बारी आई तो जैसे होश उड़े हुए थे,अब तो वह सचमुच जा रहा था। 

बेटे को खाना खिलाकर बिल्कुल बचपन के जैसे अपने हाथों से,सीमा तैयार होने कमरे में चली गई। अपनी सूरत आईने में देखकर सकपका गई,ऐसे विदा करेगी बेटे को? बहुत दिन हुए सजे,आज थोड़ा सा संवर लेती हूँ, रोहन ऐसे देखकर जाएगा तो उदास नही होगा ज़्यादा। गाड़ी एयरपोर्ट पहुंच गई थी। रोहन ने दोनों के पैर छुए,माँ ने गले लगाया। आंखों के आँसूं ,गले का पत्थर सब निस्तब्ध थे,मानों कोई बात ही ना हो। रोहन हाथ हिलाकर ,मुस्कुराते हुए अंदर चला गया। पीछे सीमा के गले के पत्थर से गुजरती हुई बरसाती नदी आंखों के बांध तोड़ते हुए उसके आँचल को भीगा चुके थे।

-सविता दास सवि,तेज़पुर,असम

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