आओ सृष्टि में नव ऊर्जा का फिर संचार करें।
सृष्टि प्रदूषण मुक्त करें, धरती से प्यार करें।
मृताशौच वैराग्य सदृश हम पर्व मनाते हैं,
दिन दूने और रात चौगुने सगर्व मनाते हैं,
तन, मन, धन, प्रकृति चारों ही मानव की हैं दूषित,
पर्व नहीं सृष्टि का हम उत्कर्ष मनाते हैं।
महती आवश्यकता है अब, जगती से प्यार करें।
सृष्टि प्रदूषण मुक्त करें, धरती से प्यार करें।
जब तब दावानल, बड़वानल को, जलते देखा है,
रण की विभीषिका में दल-बल को, जलते देखा है,
यह कैसा सन्तुलन सृष्टि का, है प्रकृति के द्वारा
अख्ण्ड ज्योति सा जठरानल को जलते देखा है।
माँ से करते हैं वैसा वसुमती से प्यार करें।
सृष्टि प्रदूषण मुक्त करें, धरती से प्यार करें।
फिर भी आता है बसन्त, आती होली दीवाली,
वृक्षों पर जीवन उगता है, खेतों में हरियाली,
वर्षा, गरमी सर्दी पतझड़ की रुत भी आती है,
वक्रदृष्टि से मानव की न अब तक सुधरी बदहाली।
भूतो न भविष्यति ऐसा अब भवती से प्यार करें।
सृष्टि प्रदूषण मुक्त करें, धरती से प्यार करें।
-गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल', कोटा
1 टिप्पणियाँ
बहुत सुन्दर ।
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