Subscribe Us

दीवाली पर फरसों के प्राणघातक खेल -आचार्य भगवत दुबे


जबलपुर जिले के दक्षिणी नार्मदीय तट पर ’बरगी‘ विकास खण्ड के गोंडी अंचल में दीपावली से लेकर कार्तिक की पूर्णिमा तक आयोजित होने वाली विभिन्न पूजाओं एवं मड़ई मेलों में आदिवासी जातियां विशेषकर ग्वाले तथा गोंड लोग अपने परंपरागत फरसों के दिल दहला देने वाले करतब दिखाते हैं जो जिले के कुछ ही गांवों में देखने को मिलते हैं। फरसी का यह आत्मघाती खेल ग्वारी घाट से लेकर भेड़ाघाट तक नर्मदा नदी के दक्षिणी तराई वाले गांवों में ही खेला जाता है।

कार्तिक अमावस्या की रात, ग्वाले, यादव, गडरिये, कोल, गोंड, भुॅइयो अथवा इनके साथ घुल मिल चुकी कुछ अन्य जातियों के लोग गुरैया बाबा या मालबाबा के दिवाले पर एकत्रा होते हैं जहां बाना,ढाल, कीलों वाली खड़ाऊं, गुर्ज, तबल और फरसों की विधिवत पूजा करते हैं। इस पूजन में नारियल, अगरबत्ती, गूगल, लोभान, अंडे, घी,दूध, दही, मदिरा, नींबू तथा काले उड़द के दानों का विशेष महत्त्व रहता है।

किन्हीं-किन्हीं दिवालों में काली मुर्गी अथवा काले सुअर के बच्चे की बलि दी जाती है। इसी रात ममरी (वन तुलसी) के पौधों की छाहुर बनाकर उसकी पूजा की जाती है जिससे पशुओं की झाड़ फूंक की जाती है। कुछ लोग मद्यपान कर ’दिवारी‘ नामक लोक गीत गाते हैं जो प्रायः दोहा छन्द में होते हैं, जैसे:-

खेरे की खेरापती, माल गुरैया देव
फरसा बाना तबल में, आंखें आसन लेव।

दूसरे दिन प्रतिपदा को दोपहर में गोवर्धन (अन्नकूट) पूजा के पश्चात् ये आदिवासी खिरका बांधने तथा गौयें खिलाने के लिए गांव वालों को विधिवत आमंत्रित कर अपनी पारंपरिक वेशभूषा छिटका पहिन कर, टोली बनाकर, मृदंग तथा कांसे की टाठी (थाली) बजाते हुए दिवारी गाते हुए, नाचते गाते गांव के चैराहों पर अपने फरसों के कतरब दिखाते हुए निकलते हैं।

ये लोग प्रायः सभी तेज धारवाले चन्द्राकार चमचमाते हुए खूबसूरत फरसे लिए रहते हैं तथा गांव के छोटे-छोटे दिवालों में रूककर पूजा करते भाव खेलते तथा एक दूसरे की जंघाओं पर फरसों से पूरी ताकत से प्रहार करते हैं। फरसा खेलने वाले लोग भी बड़ी दिलेरी से अपनी जांघें खोलकर खड़े हो जाते हैं। फरसा खिलाने वाला व्यक्ति उसकी जांघ पर लगातार तीन प्रहार करता है। छोटे बच्चे तो यह खतरनाक खेल देखकर डर के मारे चीख पड़ते हैं तथा अपनी माताओं से चिपक जाते हैं। ऐसा लगने लगता है कि पांव अब कटा कि तब। ये पैने तेज धार वाले फरसे सिर्फ जांघों पर ही नहीं मारे जाते बल्कि कुछ बहादुर निर्भीक और उत्साही युवक अपने उघारे पेट, गर्दन तथा भुजाओं पर भी फरसे खेलते हैं।

फरसा खेलने वाला या खिलाने वाला जो भी उम्र या रिश्ते में छोटा होता है, अपने से बड़े या पूज्य व्यक्ति के चरण छूता है जिस प्रकार कुश्ती लड़ने वाला व्यक्ति कुश्ती लड़ने के पूर्व अथवा बाद में अपने से बड़ों के चरण स्पर्श करते हैं। फर्क इतना है कि कुश्ती लड़ने वाला अपने प्रतिद्वंद्वियों के चरण स्पर्श नहीं करता जबकि इसमें फरसा मारने वाला व्यक्ति यदि उम्र या रिश्ते में बड़ा होता है तो उसके भी पांव पड़ना पड़ता है और यदि फरसा खिलाने वाला व्यक्ति छोटा हुआ तो वह फरसा खेलने वाले के पांव पड़ता है।

ये आदिवासी गांव के सरपंच, मालगुजार, पटेल या सम्मानित बुजुर्ग को भी बड़े आदर पूर्वक पकड़ लाते हैं तथा उन्हें फरसा खिलाकर आशीर्वाद लेते हैं तथा गौरव का अनुभव करते हैं और फरसा मारकर उनसे इनाम भी प्राप्त करते हैं। इस खेल में स्त्रिायां शामिल नहीं होती। वे झुण्ड बनाकर घरों के द्वारों पर खड़ी होकर इनके करतबों का आनंद लेती हैं। शाम होते होते ये लोग नाचते गाते हुए गांव के खेरे में पहुंच जाते हैं जहां पशुओं को इकट्ठा कर खिरका बांधते हैं तथा गौएं खिलाते हैं।

आश्चर्य की बात तो यह है कि प्राणघातक प्रहार को ये खेल कहते हैं। इसमें कोई घाव नहीं बनता, न ही शरीर का कोई अंग कभी कटता है। पूछने पर ये लोग बताते हैं कि अस्त्राशस्त्रों की मंत्रा से धार बांध दी जाती है। हजारों में से कभी कभार किसी व्यक्ति का अंग कट जाने पर ये लोग मानते हैं कि किसी ईष्र्यालु शत्राु या विपक्षी ने दूर से ही मंत्रा द्वारा इनके फरसे की धार खोल दी है। तब ये नींबू और मंत्रा से फरसे की धार पुनः बांध देते हैं तथा घाव पर किसी पत्ती का रस लगाकर मंत्रा द्वारा उसे भी ठीक कर देते हैं। आज तक एक भी ऐसा प्रकरण प्रकाश में नहीं आया जब किसी घायल व्यक्ति को अस्पताल ले जाना पड़ा हो।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि फरसों का यह खेल नर्मदा नदी के दक्षिणी तट के आदिवासी ही खेलते हंै, नर्मदा के उत्तरी तट के लोग नहीं। दिवाली के दूसरे दिन से लेकर कार्तिक की पूर्णिमा तक आसपास के विभिन्न गांवों में भरने वाले मड़ई मेलों में भी ये लोग ऐसे ही फरसों के करतब दिखाते तथा इनाम वसूल करते रहते हैं।

जिस गांव से इनके पास सुपाड़ी (निमंत्राण) आती है, वहां ये लोग अपना पहुआ (दल) लेकर जाते हैं। मड़ई वाले गांव का मुखिया या बैगा इनकी अगवानी करने के लिए अपने पहुआ के साथ खेरे तक आता है तथा दोनों पहुए आपस में फरसे खेलते हैं। फिर जाकर माता, चंडी की परिक्रमा करते हैं और अपने करतब दिखाकर मड़ई में आये दुकानदारों से इनाम प्राप्त करते हैं।

कार्तिक की पूर्णिमा को ये लोग नाचते गाते हुए नर्मदा नदी में जाकर छाहुर विसर्जित कर देते हैं तथा अपने फरसों को स्नान करवाकर एक वर्ष के लिए पुनः दिवाले में रख देते हैं। कार्तिक की पूर्णिमा के पश्चात अगली दीवाली तक फिर कहीं कोई फरसे नहीं खेले जाते। इस प्रकार बड़े हर्षोल्लास के साथ आदिवासियों का यह दीपावली पर्व संपन्न होता है। ये भोले भाले आदिवासी ही हमारी लोक-संस्कृति के रखवाले हैं।

-आचार्य भगवत दुबे, जबलपुर
(अदिति)

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ