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बेसन चक्की (लघुकथा) -यशपाल तंवर


तुम्हारी तबीयत अभी-अभी सुधरी है इसलिए इस बार दीपावली पर बाहर का तला-गला नहीं चलेगा। बाकी सब चीजें बाज़ार से ले आना मगर खाने पीने का सीमित मात्रा में ही लेकर आना।

क्या माँ तुम भी ! सालभर का त्यौहार पकवानों के बिना फीका नहीं लगेगा ? 

दादी - नहीं बेटा ! बिल्कुल नहीं लगेगा। जब तक घर के बड़े बुजुर्गो के हाथों में मिठास क़ायम है तब तक भला खाने का स्वाद कैसे ग़ायब रह सकता है ? 

पोता - तो क्या आप घर पर ही कुछ खास बनाने वाली हो दादी ? 

दादी - हांँ ! तेरे पापा की फेवरेट मिठाई बेसन चक्की। 

पोता - बेसन चक्की ! ये कौन सी मिठाई है ? 

दादी - ये हमारे ज़माने की शुद्ध घी की बेसन की मिठाई है बेटा। इसे बनाने में घर के सदस्यों का प्यार भरा परिश्रम लगता है। इसलिए ये स्वादिष्ट होने के साथ-साथ गुणकारी भी है। हमारे समय में बेसन चक्की ही मेहमानों की आवभगत और त्यौहारों की रौनक हुआ करती थी।

पोता - तो फिर अब क्यों नहीं बनती ये बेसन चक्की ?

दादी - इसलिए नहीं बनती कि आज सबको सब कुछ तैयार मिल जाता है मगर घर की बनी बेसन चक्की में मेहनत के अलावा खुशी,उत्साह,उमंग,अपनेपन और प्यार का स्वाद अलग से आता है...।

-यशपाल तंँवर,रतलाम

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