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भ्रमजाल (कहानी)


दो दिन पहले एक स्कूल को बाढ़ राहत शिविर केन्द्र बनाकर,उसमें बाढ़ से बचाए हुए लोगों को रखा गया था। वहाँ बाढ़ में अपना घर जमीन, जायदाद और परिवार जनों को खोकर रह रहे, सवा सौ के करीब लोग, बाढ़ की उस भीषण त्रासदी का जीता-जागता सबूत थे, जो उनकी ज़िंदगी की तमाम खुशियों को एकसाथ बहा ले गई थी। उनके मुरझाए चेहरे, रुक-रुककर बरसतीं आँखें,और ईश्वर से बाढ़ उतारने की कामना के साथ अपने बिछड़े हुओं को मिलाने की प्रार्थना या शिकायत भरे स्वर, वहाँ रह-रहकर गूँज उठते थे।

अपने मन को तसल्ली देने के लिए कभी वे सभी एक-दूसरे के घर-परिवार की जानकारी लेकर उन्हें ढाँढस बँधाते हुए उम्मीद दिलाते रहते थे, कि बाढ़ का पानी उतरने पर सब कुछ तो नहीं, पर कुछ तो ठीक हो ही जाएगा।

इन राहत शिविरों में सरकार अपने स्तर पर खाना, पानी, चाय-दूध, कपड़़े और दवा भिजवाने की व्यवस्था कर रही थे। त्रासदी को देखते हुए ये इंतजाम भले ही ना-काफी थे, लेकिन जैसे भी थे। जो भी थे,जीने के लिए आखिर उनकी जरूरत तो थी ही। इसलिए किसी भी तरह की सहायता आने पर, वह चीज पहले मुझे मिल जाए, पाने के लिए वहाँ भगदड़ मच जाती थी। कई लोग तो इस भगदड़ का फायदा उठाकर,भोजन के दो या तीन पैकिट तक हथिया लेते थे।

शिविर बने उस स्कूल के एक कोने में बैठने-लेटने वाला एक अधेड़ कभी भी इस भगदड़ का हिस्सा नहीं बनता था। सामग्री बँट जाने के बाद राहतकर्मियों के पास,उसे देने के लिए अंत में कुछ बचता भी नहीं था। लेकिन बेचारगी भरी नजरों से उस भीड़ को निहारते हुए उसने, इस बात पर शिकायत का स्वर भी नहीं उठाया। बल्कि वह कभी आकाश की ओर निहारते हुए, तो कभी आँखें बंद करके बुदबुदाते हुए अक्सर, सभी को नज़र आता था। लोग इसे उसके दिमाग में लगा सदमा मानकर नज़र अंदाज़ कर देते थे।

दो दिन बाद,एक राहतकर्मी ने स्वयं उनके पास जाकर,जब पानी की बॉटल और भोजन का पैकिट उनके हाथों में दिया, तो वो बेचारगी वाले अंदाज में जोर से हँसते हुए बोला "प्रभु! बता दी तूने हमें हमारी औकात? मैं तो अभी तक इसी भ्रम में जी रहा था, कि ये जमीन, जायजाद, घर सब मेरे दम पर बने हैं। परिवार में सबकी इच्छा पूरी करके खुशियाँ देने वाला मैं ही हूँ। मैंने ही अपने दोनों बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाया है। उनके लिए बढ़िया से बढ़िया रिश्ते तलाशकर शादियाँ की हैं। अपने दम पर खड़ी की हुयी फैक्ट्री में काम देकर, बीसों परिवार को पालने वाला मैं ही हूँ। समाजसेवा करने के लिए ऐसे राहत शिविरों में तो मैं लाखों की राहत सामग्री दान दे देता था। कितने मंदिरों और संस्थाओं को भी मैंने दान दिया। लेकिन भगवान! बाढ़ के बहाने आज तूने मेरा झूठा भ्रम और अहंकार तोड़कर मुझे अच्छी तरह से समझा दिया, कि इंसान कर्ता बनने का अहंकार तो पाल सकता है, लेकिन कर वही पाता है, जो तू उससे करवाना चाहता है।"

कुछ पल रुककर गहरी साँस लेने के बाद,अपनी छाती को मसलते हुए, उन्होंने सबकी ओर देखते हुए धीमे स्वर में फिर बोलना शुरु किया "प्रभु! बाढ़, भूकंप,तूफान,अकाल या महामारी जैसी विपदाओं के रूप में आकर तू हमें अक्सर चेताता रहता है, लेकिन अहंकार के मैं, में डूबे, सुविधाओं के सुखमय भ्रमजाल में उलझे हम, तेरी हर चेतावनी को नज़रअंदाज करके या तो कछुए की तरह अपनी सुविधाजनक खोल में दुबक जाते हैं या फिर वीडियो बनाकर लाईक इकट्ठा करने में जुट जाते हैं। क्यों भाईयो! मैं सही कह रहा हूँ या गलत?"

अब तक अवाक होकर उनको सुन रहे लोगों में से अधिकांश के तो सिर तो हाँ! में हिले, लेकिन एक फटेहाल व्यक्ति बोल उठा "सही कह रहे हो भाई! आज हम सबके भ्रम टूट गए हैं। इस राहत शिविर में अब ना कोई अमीर है और ना ही कोई गरीब। अभी तो हम सब एक ही धरातल पर खड़े हुए हैं। लेकिन कल को जब परिस्थिति बदलेगी, तब भी हम इंसान भ्रमजाल से दूर ऐसे ही रहेंगे, यह भी तो नहीं कह सकते?"

-निरंजना जैन, सागर


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