शरद की जुन्हाई -
अब धरा पर छाई ।
चांद निहार रहा -
अब रूप धरा का ।
रूप जिसका लगे -
निखरा- निखरा- सा ।
तारों जड़ी फरिया -
गगन में लहराई ।
चांद अब डुबकियां -
लगा रहा सर में ।
चांदी चमक रही -
चम- चम निर्झर में ।
नदियों में चांद की -
अब छबि निखर आई ।
उरों के मिलन की -
रजत - रैन आई ।
रात भर प्यार की -
ग़ज़ल गुनगुनाई ।
झील के दर्पण में -
मोहिनी छबि भाई ।
चांदनी पर बदन -
चांदनी में डूब ।
चांदनी से आज -
वे नहाए खूब ।
निहारकर चांदनी -
भाग्य पर इठलाई ।
-अशोक आनन ,मक्सी
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