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सादगी कुछ और हो (ग़ज़ल)


ख्वाब में जो आ रहे तुम हो वही कुछ और हो।
ये बताओ ज़ीस्त या देते ख़ुशी कुछ और हो।

ग़म हमारे ख़्वाब में तुम दूर भी जो कर गए,
दे रहे तुम हर ख़ुशी हो आशिक़ी कुछ और हो।

ख़्वाब में तुमने सुनाए जो लतीफ़े इश्क़ के,
इश्क़ का पैगाम हो या नाज़नी कुछ और हो।

आजकल जो चैन से मुझको सुलाने हो लगे,
ऐसा लगता इस जहाँ के तुम नहीं कुछ और हो।

तुम फरिश्ते की तरह एहसास ये होने लगा,
आम हो लेकिन नहीं तुम आदमी कुछ और हो।

तुम हमारा ख़्याल रखते है बड़ी संज़ीदगी,
भा गये दिल को मगर है सादगी कुछ और हो।

तुम जो आए ज़ीस्त में रुख़ ही बदल डाला मगर,
ज़ीस्त में आने लगी ध्रुव ताज़गी कुछ और हो।

-प्रदीप ध्रुव भोपाली,भोपाल


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