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स्वरूप


हर इंसान का अपना स्वरूप
जीने का अपना रँग रूप

उसने बनाई अपनी एक शैली
जिसमे बसी उसकी जिंदगी की रंगोली

क्यों कोई दूसरा उन रंगों को बदलता
उसके रंगो में अपना रंग ढलता

क्यों कोई अपने हिसाब से जी नहीं सकता
क्यों कोई उसके ख्वाब में दूसरा कोई बसता

जब अपना नाम खुद तय नहीं कर पाता
कुल वो खुद तय नही कर पाता

पर सच्चाई है कड़वी
जीने का ढंग वही
जिसमें दिखे अपनो की छवि

उसमे ही छिपा है प्यार
परिवार नहीं साथ तो कोई क्या हमारी हँसती
अपनो के साथ को ये दुनियाँ है तरसती

अपनी दुनियाँ हमारे अपनों से बीते
उन्ही पलों में उनके प्यार को है जीते।

-संगीता तल्लेरा, उज्जैन

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