Subscribe Us

जीवन का पर्याय है-भावनात्मक बुद्धिमत्ता


जीवन की सफलता के लिए व्यक्ति की दक्षता का परीक्षण किया जाता है इसमें कई विधियां प्रचलित हुयी इसमें बुद्धि की तीव्रता, बुद्धि लब्धी (आई.क्यू.) महत्वपूर्ण रही लेकिन आज नई विधियां प्रचलित हुयी है जिसमें ई.क्यू. अर्थात भावनात्मक बुद्धिमत्ता महत्वपूर्ण है। इस विधि का व्यक्तिगत जीवन की सफलता, पारिवारिक सामाजिक एवं समूह स्तर पर इसको जोडकर देखा गया है तथा इसकी उपयोगिता एवं महत्ता अधिक कारगर सिद्ध हुयी। भावनात्मक बुद्धिमत्ता का सामान्य अर्थ है व्यक्ति का अपने दूसरों के मनोभावों को समझना उनपर नियंत्रण करना तथा अपने उद्देश्य प्राप्ति हेतु उनका सर्वात्तम उपयोग करना है।

इमोशनल कोश्येन्ट (ई.क्यू.) अर्थात भावनात्मक बुद्धिमत्ता का उपयोग युनानी दार्शनिक अरस्तु ने किया था। लेकिन प्रभु महावीर ने तो बहुत पहले ही बता दिया था कि मानव संवेदनाओं से दया, करूण जाग्रत होती है, जिससे मैत्री बढ़ती है तथा दूसरों की भावनाओं को भी समझा जाता है, इसके लिए इन्द्रियों के माध्यम से आत्म के अस्तित्व का ज्ञान किया जा सकता हैं इसमें पांच ज्ञानेन्द्रियों, श्रोतेन्द्रीय, चक्षु, इन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय तथा स्पर्शन्द्रिय इसके पांच विषय जिन्हें संवेदना भी कहते है, जिन्हें श्रवण, दृष्टि, घ्राण, स्वाद तथा स्पर्श आदि से जानते हैं। इनके द्वारा संवेदनाओं का अनुभव किया जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने संवेदनाओं की परिभाषा देते हुए कहा है ‘संवेदना‘ एक संस्कार मात्र है जो किसी उत्तेजना के ज्ञानेन्द्रियों पर क्रिया करने के कारण उत्पन्न होता है। (सा. मनोविज्ञान जे.एन. सिन्हा पेज-197) ज्ञानि भगवन्तों ने बहुत व्यापक स्तर, तक चेतना, मन, संवेदना, इन्द्रिय प्रदत्तों एवं अन्य मनोबिम्बों के बारे में विशद विवेचन ही नहीं किया अपितु कई मौलिक अवदान भी दिए है। इतना ही नहीं भावनाएं, ध्यान एवं संज्ञाओं (मूल्य प्रवृतियों) के बारे में मौलिक मनोविज्ञानीय अवधारणाएं देकर वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया है।

अचारांग सूत्र स्पष्ट करता है ‘जो व्यवहार स्वयं को अच्छा न लगे वह दूसरों के साथ नहीं करें। हर जीव का स्वतंत्र अस्तित्व है, प्रत्येक जीव जीना चाहता है इसलिए हमें उस पर क्रूरता का, दण्ड देने का तथा मारने का अधिकार नहीं है। प्रत्येक जीव अपने अस्तित्व में रहना चाहता है, विकसित होना चाहता है। इन सब का आधार ‘भावनात्मक बुद्धिमता‘ ही रहा है। जिसका उद्देश्य दूसरे के मनोभावों को समझ कर अपने आवेगों पर नियंत्रण रखते हुए तथ अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सर्वोत्तम उपोग किया जावे, जिमें शोषण नहीं हो, सामने वाले का अहित भी नहीं हो।

अमेरिकन मनोवैज्ञानिक डेनियल गोलमैन द्वारा 1950 में लिखित अपनी पुस्तक “इमोशनल इंटेलिजेंस: व्हाई इट केन मेंटर मोर देन आई क्यू“ में बताया कि आज व्यक्ति दक्षता का आधार आई क्यू के स्थान पर ई व्यू ज्यादा कारगर है। क्येांकि व्यवहारिक जीवन की सफलता अस्सी प्रतिशत से अधिक भावनात्मक बुद्धिमता की भूमिका रहती है जबकि आई.क्यू का महतव बीस प्रतिशत से भी कम रहता है। उनका यह भी मानना है कि महिलाओं में भावनात्मक बुद्धिमता अधिक पायी जाती है और वर्तमान परिस्थितियों में भावनात्मक बुद्धिमता का महत्व बढ़ता जा रहा है। इस आधार पर भविष्य में भी अधिकांश उच्च पदों पर महिलाओं की संभावनाएं बढ़ेगी क्योंकि भावनाएं कोमल एवं हृदय स्पर्शी हाती है तथा दूसरों को समझने की क्षमता होती है।

भावनात्मक बुद्धिमता पांच क्षमताओं का समूह है इसमें

1. सेल्फ अवेयरनेस - स्व जागरूकता 2. सेल्फ रेगुलेशन- आत्म नियमन

3. सेल्फ मोटिवेशन- आत्म अभिप्रेरणा 4. एम्पैथी- समानुभूति तथा

5. सोश्यल स्किल्ड- सामाजिक दक्षता

1. स्व जागरूता - पर ही व्यक्ति अपने गुणों की समझ व परिस्थितियों की पहचान आसानी से कर पाता है इसके आधार पर व्यक्ति अपने बातचीत के ढंग आचरण तथा सम्बन्धों को मजबूत करने में सफल होता है। अपने आन्तरिक सन्तुलन के साथ कार्य क्षेत्र में अन्तर्ससम्बन्धों को बेहतर बनाने में ई.क्यू. महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

2. सेल्फ रेगुलेशन- स्वनियमन के द्वारा व्यक्ति अपने भाव-संवेगों के प्रति संवेदनशील होता है, दूसरों की वाणी व्यवहार के साथ उनकी दैहिक भाषा (बोडि लेग्वेज) के माध्यम से भी समझने में सक्षम होता है। अपने संवेगों को अपने विचारों के साथ संबद्ध कर उचित निर्णय के साथ समस्या के समाधान की और बढ़ता है। अपने संवेगों की प्रकृति व तीव्रता को समझते हुए नियंत्रित व्यवहार करता है, जिससे कि आपसी सामंजस्य के साथ शान्ती को प्राप्त हो सके।

3. सेल्फ मोटिवेशन- आत्म अभिप्रेरणा- भावनात्मक बुद्धिमता के साथ व्यक्ति अपना सटीक स्व. मूल्यांकन कर पाता है, तथा स्व प्रेरणा द्वारा अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने में सक्षम होता है। यह उसके अंत वैयक्तिक संचार कौशल को बेहतर बनाता है, जिससे आपसी संबधों में उचित समझ, उदारता व सहिष्णुता का समावेश होता है। ई.क्यू. एक प्रेरक व आशावादी दृष्टिकोण बनाये रखने में सहायक हेाता है।

4. एम्पैथी- समानुभूति- ई क्यू द्वारा व्यक्ति विभिन्न प्रकार की प्रकृति के व्यक्तियों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की भावना विकसित करता है। धैर्य के साथ दूसरों को परखने का भाव रखता है। दूसरों की भावनाओं को गहराई से समझता है सबको समझकर अपना निर्णय लेता है।

5. सोश्यल स्किल्ड - सामाजिक दक्षता - ई क्यू व्यक्ति व समूह की कार्यक्षमता में बढ़ोतरी करता है तथा नेतृत्व क्षमता के विकास व सशक्तिकरण में सहायक होता है। इस आधार पर सामंजस्य को स्थापित कर उचित व सही निर्णय लेने में सहायता करता है। ई.क्यू. से मानवीय सम्बन्ध स्वस्थ और सन्तुलित बनाते है। जीवन की चुनौतियों का सकारात्मक भाव के साथ सामना करने की क्षमता विकसित होती है तथा समस्याओं को समाधान की दिशा में उचित कदम उठाते है और जीवन के हर क्षेत्र में सफलता सुनिश्चित होती है।

ई. क्यू. का महत्व - जीवन के हर क्षेत्र में ई.क्यू. महत्व को समझा जा सकता है। प्रशासन नौकरशाही से लेकर सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक अर्थात जीवन के हर क्षेत्र में इसकी उपयोगिता देखी जा सकती है। व्यक्तिगत स्तर पर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य एवं सन्तुलन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। इसके साथ तनाव प्रबंधन, प्रभावी ढंग से हो पाता है जिससे उच्च रक्त चाप, मधुमेह, हृदयघात जैसे रोगों का खतरा कम हो जाता है। व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है उसे दीर्घायु का वरदान मिलता है।

ई क्यू में कमी होने के कारण व्यक्ति आसानी से तनाव ग्रस्त हेा जाता है तथा सही ढंग से अपनी बात को व्यक्त नहीं कर पाता। न्यून ई क्यू के कारण दूसरों की भावना को गहरायी से समझने में कठिनायी होती है तथा दूसरों की कमियों को भी आसानी से माफ नहीं कर पाने से अन्दर ही अन्दर अनावश्यक आक्रोश व तनाव पाल लेता है। छोटी छोटी बातों का बुरा मान लेता है तथा अपने जीवन की कठिनाईयों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराता है। इतना ही नहीं न्यून ई क्यू एक सन्तुलित एवं परिपक्व जीवन की ओर बढ़ने से रोकता है। अतः ई क्यू को धीरे धीरे अभ्यास के द्वारा बढ़ाना चाहिए। इसके लिए स्व मूल्यांकन करे अपनी कमजोरी को समझकर साहस के साथ सुधार करे दूसरों की भावनाओं को भी ध्यान में रखे।

तनावपूर्ण स्थिति में अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखे एवं वाणी पर संयम। दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करे जो स्वयं को पसंद नहीं हो। यदि किसी की भावनाएं जाने अनजाने में या आवेश में आहत हो गयी है तो इसके लिए तुरन्त क्षमा मांगले जिससे आपके मन में विकार उत्पन्न नहीं होंगे। ऐसी सकारात्मक क्रियाएं भावनात्मक बुद्धिमता एवं उर्जा को विकसित करती है जो जीवन के पर्याय के महत्व को बढ़ाने वाली है।

-पदमचन्द गांधी, भोपाल


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ