बहने लगी हवा ज़हरीली ।
गुणा-भाग हैं सबके अपने ,
सबके अपने-अपने हित हैं ।
क़दम-क़दम पर आग लगा कर ,
हाथ सेंकने वाले नित हैं ।
कोई नहीं रूमाल यहां पर ,
राह तक रहीं आँखें गीली ।
कोई कैसे जिए भला अब ,
बहने लगी हवा ज़हरीली ।।
जो आकाश बने बैठे हैं ,
वो धरती का पीर लिखेंगे ।
आज़ादी की संज्ञा देकर ,
बस केवल ज़ंज़ीर लिखेंगे ।
बाँट रहे हैं दवा नींद की ,
रचने को दुनिया सपनीली ।
कोई कैसे जिए भला अब ,
बहने लगी हवा ज़हरीली ।।
हाथों में हथियार थामकर ,
सबने शान्ति गीत हैं गाये ।
नरभक्षी हो गई सभ्यता ,
बारूदों का ढेर लगाए ।
ऐसे में कब कौन जला दे ,
सिर्फ एक माचिस की तीली ।
कोई कैसे जिए भला अब ,
बहने लगी हवा ज़हरीली ।।
-डॉ दिनेश त्रिपाठी शम्स, मुशलपुर ,असम
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