भवानीप्रसाद जी की कविताओं की भाषा सहज-सरल, बोलचाल युक्त, जन भाषा है | काव्य मे संप्रेषणीयता है, वे जो कहना चाहते है, उनकी भाषा सहायक है| संबोधन शैली चिरपरिचित शब्दावली का प्रयोग उनकी भाषिक शैली की प्रमुख विशेषता है | पूर्व के कविताओं की भाषा तथा बाद के कविताओं की भाषा में बहुत अंतर है, यह स्वाभाविक भी है, जैसे-जैसे कवि की सोच में प्रोढ़ता आती है, भाषा भावानुकूल बदल जाती है | ‘गीतफरोश’ से लेकर- ‘व्यक्तिगत’ तक की भाषा बहुधा अभिधा प्रधान है, साथ-साथ स्थानीय एवं विदेशी शब्दों का भी बहुत प्रयोग है| तथा भावानुकूल शैली का भी प्रयोग है, कहीं सहज सरल शैली है तो कही व्यंगात्मक, क्लिष्ट भी है | प्राय: प्रसाद गुण युक्त शैली का अधिक प्रयोग है-
“कौन किसे समझाये, कोई समझ सकेगा समझाने से |
जी के दाग दिखाऊँ,
कोई देख सकेगा दिखलाने से |
अपना रोना रोने से क्या,
किसे परायी फिक्र पड़ी है|”
यहाँ भाषा प्रयोग सहज-सरल, शैली प्रश्नात्मक है |अपनी बातों को कवि बड़े ही सहज ढंग से प्रस्तुत करते हैं |
भवानी प्रसाद की कविताओं में व्यंग्य भी बड़े सुन्दर ढंग से उद्दधृत है यथा-
“जी हाँ हुज़ूर मैं गीत बेचता हूँ
किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ,
जी माल देखिए, दाम बताऊंगा,
बेकार नहीं है, काम बताऊंगा |”
इस प्रकार कवि व्यंग्य के माध्यम से अपने मन के भाव को सुन्दर ढंग से प्रकट किया है | इसी प्रकार एक जगह ‘खाट’ और ‘खटमल’ के रूपक का आधार लेकर कवि कहता है –
“खटमल के पीछे लोग खाट छोड़ देते हैं
यह भी एक ढंग है, खासकर वहाँ जहाँ
खाट और खटमल का नित्य साध संग है |
धरती मगर खाट तो नहीं
कि चले जाये और कहीं
चंद्रमा में मंगल मे जाने के दिन जब आयेंगे
तब आदमी से पहले खटमल वहाँ जायेंगे|” (19)
व्यंग्यात्मक शैली का सुन्दर उदाहरण है | सहज, सरल प्रतीकों के माध्यम से गूढ़-गंभीर समस्या को दिखाने मे कवि सिद्धस्त है |
इसी तरह एक अनूठे भाषिक शैली का उदाहरण-
“भगवान चाहता तो आदमी से भी अधिक
मूर्ख कोई प्राणी बना सकता था,
मगर नहीं बनाया उसने,
आदमी से मूर्ख कोई प्राणी |”
सुन्दर व्यंग्य एवं कटाक्ष पूर्ण शैली |
कहीं-कहीं भाषा में वर्णनात्मक अद्भुत सौन्दर्य उत्पन्न करती है-
“गाँव इसमें झोपड़ी है, घर नहीं है,
झोपड़ी के फतकियाँ है, दर नहीं है ,
धूल उड़ती है, धुंए से दम घुटा है,
मानवों के हाथ में मानव लुटा है,
रो रहे है शिशु कि माँ चपी लिए है,
पेट पापी के लिए पक्की किये है
फट रही है छाती |” (20)
यहाँ वर्णनात्मक, इतिवृत्तात्मक शैली में कवि ने गरीबी की मूक व्यथा वर्णित की है| कहीं भाषा मे उद्बोधन है तो कहीं भाषा मे मूक व्यथा| उद्बोधन युक्त शैली दृष्टव्य है-
“ चलों लेकर एक नव आशा
नया उत्साह |
सावन में संभाले खेत अपने
बिखेर दे, बो दे, उगा दे |
आज उनमें नए सपने |”
अत: कवि की कविताओं मे विविध शैलियों का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है | भाषा मे प्रतीक एवं बिम्बों का भी सुन्दर प्रयोग है | कवि ने शब्दों का चयन भी भाषानुकूल किया है |
“दर्द की दवा का असर
हवा हो जाये जब”
यहाँ दर्द, दवा, हवा शब्दों का सुन्दर चयन है |
इसी प्रकार एक कविता मे कवि का शब्द चयन दृष्टव्य है-
“ उधेड़ डालता हूँ
यादों के कई बार आवरण
अप्सरा की तरह खड़ी हो जाती है वो
मेरे सामने नितारण
मिलकर सरोवर के पानी से |” (21)
यहाँ भावानुकूल सुन्दर शब्दों का चयन- ‘उधेड़’ , ‘आवरण’ , ‘अप्सरा’ , ‘सरोवर’ सुन्दर सौन्दर्य उत्पन्न कर रहा है | कवि ने प्रतीकों के विविध प्रकारों को अपनी भाषा में प्रयोग किया है | प्रकृति के चितेरे कवि हैं तो प्राकृतिक प्रतीक, एतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी तरह के प्रतीक प्रयुक्त्त हैं | प्राकृतिक प्रतीक की अदभुत छटा –
“अगर बिजली चमककर
आँख से कहती
कि बहती झोपड़ी में एक
हाहाकार बैठा है
गिरा होता कही
गर्वित किसी के शीश पर |” (22)
यहाँ प्राकृतिक प्रतीक का सुन्दर समन्वय है | इसी तरह-
“बूंद से दूर है जितना मोती
या कहो
दूर है जितना फूल से फल |”
प्रकृति के कवि मिश्रजी ने प्राकृतिक प्रतीकों जा सुन्दर चित्र खीचा है –
“एक प्रतिबिम्ब चाँद का
मैले पानी में डबरे में
स्वस्थ बैठा हूँ जैसे मैं
अपने असुरक्षित देश के
किसी सुरक्षित कमरे में |” (23)
इतनी सुन्दर उद्भावना जो गूढ़ प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति युक्त है | एक प्रतीक दृष्टव्य है –
“सूरज ने हरे खेतों को
पीला कर दिया है
तुम चाहों तो कहो
सुनहला कर दिया है |”
प्रतीकात्मक शब्दों ‘पीला’, ‘सुनहला’ का सुन्दर प्रयोग है | इस प्रकार कवि ने फूल, सूरज, नदी, फसल, अंधकार, चांदनी, पहाड़ इत्यादि का बहुत ही सुन्दर प्रतीकात्मक प्रयोग अपनी भाषा में किया है | कहीं-कहीं सैद्धांतिक प्रयोग भी बड़े अच्छे ढंग से किया है –
“हाय रे संसार सागर
बन अगर पड़ता तो मैं
तुझको बनाता एक गागर
झुलाकर हांथों में ऊपर
उठाकर कंधों से ऊपर
मैं तुझे दे मरता पल भर |” (24)
सांस्कृतिक प्रतीक भी इनकी कविताओं मे दृष्टव्य है-
मंदिर में घंटा ध्वनि
जग जाती है |
कहीं-कहीं प्रकृति में मानवीकरण करते हुए भावनात्मक प्रतीकों को भी भाषा में पिरोते हैं –
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल |
‘नींद’ तथा ‘ऊँघना’ प्रतिकों का सुन्दर प्रयोग है |
इनकी भाषा में बिम्बात्मक भी दिखाई देती है | बिम्ब वो मानसिक कल्पना है जो कवि के मन में जन्म लेती है |चाक्षुष बिम्ब, ध्राण बिम्ब, स्वाद बिम्ब, स्पर्श बिम्ब, श्रोत्र बिम्ब सभी का भाषा मे सुन्दर समन्वय हुआ है | एक उदहारण दृष्टव्य है-
“एक बूढ़ा आदमी
चल रहा है सड़क पर
बदल दिया है उसका रंग
बत्ती के मटमैले उजाले ने
और कुत्ते उस पर भौंक रहे है |” (25)
चक्षु बिम्ब का सुन्दर उदहारण सामने एक चित्र उपस्थित करने मे कवि समर्थ है | एक बिम्ब और दृष्टव्य है-
“मेरी आत्मा ऐसी है
जैसी पेड़ पर फल
तनिक कोशिश करो
तो उसे देख सकते हो
छू सकते हो, पा सकते हो |”
इसी तरह स्पर्श बिम्ब को भी कवि व्यक्त करते हैं -
“सुबह-सुबह टहलते-टहलते
हरी-भरी धुप पर पाँव पड़
तो लगा जैसे पड़ गया हो पाँव
किसी सोते हुए आदमी के शरीर पर |” (26)
कवि ने अपनी कविताओं में बहुत सुन्दर ढंग से बिम्बों को उभारा है | काव्य में बिम्बविधान अलौकिक सौन्दर्य उत्पन्न करते हैं, भाषा में लयात्मकता आती है, बिम्ब एवं अलंकारों का सुन्दर समन्वय है |
अत: यह कहा जा सकता है कि भाषा में समान्तरता, बिम्ब, प्रतीक, शब्दों का सुन्दर चयन एवं विचलन के द्वारा कवि ने अपनी कविता को सशक्त तथा पाठकों के हृदय में उतरने योग्य रचा है | भाषा-शैली सशक्त तथा भावोद्बोधक है|
-डॉ. माया दुबे, भोपाल
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