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फागुन फिर से आ गया

डॉ. पुष्पा चौरसिया

दिशा-दिशा बैरिन हुई, जब से साजन दूर।
मन- उछाह ऐसा उड़ा, जैसे उड़े कपूर ।।

बिन सोचे ही छेड़ती यह फगुवाई रात ।
जले टेसुआ डाल पर, मन की कौन बिसात ।।

अमराई की डाल से मौर करें संकेत ।
नेह कहाँ से पाओगे ? चहुँदिशि फैली रेत ।।

रंगों से मनुवा कहे, व्यर्थ तुम्हारा काम।
कब तक पात्तीं में लिखूँ, सजनवा के नाम ।।

झाँस- मजीर-चंग को पड़ी छोड़नी ताल ।
डिस्को ऐसा मन बसा, सूने सब चौपाल ।।

राह देख पथरा गए, रतनारे दो नैन ।
चैन गया कुंठित हुए, वाणी, मनवा, बैन ।।

देख कनखियों से रही आधी खिड़की खोल।
पुरवाई फैला गई, कामनिया की पोल ।।

होली की मनुहार को, बंधु करो स्वीकार ।
फागुन फिर से आ गया, हंसकर तेरे द्वारो ।।

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