पुस्तक - पानी से दीप (काव्य संग्रह) कवि - डॉ दिलीप धींग प्रकाशक - अभुषा फाउंडेशंस, 27, मइलै रंगनाथन स्ट्रीट, टी. नगर, चेन्नई पृष्ठ - 120, मूल्य - रु. 200/- |
धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तवयः, मानो धर्मो हतोवधीत।।
अर्थात जो पुरुष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसीलिए मरा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात त्याग कभी न करना चाहिए। कुछ ऐसा ही संदेश डॉ. दिलीप धींग जी की कविताएँ भी देती हैं। ऐसे समय में जब समाज का हर व्यापार छल और झूठ पर गति पा रहा है, वे कहते हैं-
‘‘दान-पुण्य का फल कम होता, भक्ति होती नामंजूर,
मायाचारी के जीवन से, अपने भी हो जाते दूर,
प्रभु-साम्राज्य मिलेगा उनको, जिनके दिल में दगा नहीं है।
जीवन में सच्चाई रखो, दगा किसी का सगा नहीं है।’’
या फिर-
‘‘ना चलता है, ना सुख देता, धोखे का कोई व्यापार
इसकी टोपी उसके सिर पर ,रखते, करते बंटाधार।’’
दिलीप जी मर्यादित, अनुशासित जीवन को ही मनुष्यता का सारतत्व मानते हैं। उनके लिए ‘अनुशासन ही जीवन की लय’ है, जो जीवन को गत्यात्मकता प्रदान करती है। कवि समाज में व्याप्त विसंगतियों का कारण सहनशीलता और धैर्य के अभाव को मानता है। कवि का मानना है कि एक स्वस्थ समाज का निर्माण ही हमें और नई पीढ़ी को सहने की, धैर्य की शिक्षा दे सकता है। उसका एक मार्ग भी सुझाते हैं कि-
‘विनय धर्म को धारण करके, गाँठ अहम की खोलें,
हाथ जोड़कर, मान मोड़कर, प्रेम से हौले हौले।’
साथ ही साथ मन की कटुताओं को विस्मृत करने का संदेश देते हुए कहते हैं कि-
‘मतभेदों के कारण से मनभेद ना होने पाए,
भेद के भीतर जो अभेद है, वह समझे, समझाएँ।’
एक साहित्यकार का धर्म यह होता है कि वह अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को जागृत करे और दिलीप जी की कविताएँ उसी तंद्रा को तोड़ने का आह्वान करती हैं जो समाज को पतन की ओर ले जा रही है। उनके शब्दों में-
‘आत्मविस्मृति, आत्म-वंचना खूब हुई अब त्यागें,
उम्र जा रही सोते-सोते, भय-नींद से जागें।’
कहा भी गया है कि जब जागें तभी सवेरा है, क्योंकि ‘वक्त की चिड़िया ने भी, खेत अभी तक चुगा नहीं है।’
देश मे फैले आतंकवाद को समाप्त करने हेतु वह नवांकुरों का आह्वान करते हैं कि वे ही इस हिंसा को पृथ्वी से समाप्त कर वैश्विक शांति का साम्राज्य स्थापित करेंगे। कवि मन कहता है--
‘जहाँ अहिंसा-ज्ञान नहीं हो,
वहाँ मनुजता रोती है,
बच्चे मूल्यों के रखवाले,
मानवता के मोती हैं।
उनकी खनक शुद्ध आभा से,
हिंसा का तिमिर हरना है
आतंकवाद खत्म करना है।’
सामाजिक चिंता के साथ-साथ निज चिंता भी कवि की कविताओं का उद्देश्य रहा है। शाकाहार को अपनाने का सार्थक उपक्रम इन कविताओं में दृष्टिगत होता है। कवि कहता है कि शाकाहार को अपनाकर वे ‘जियो और जीने दो’ सूत्र को चरितार्थ करना चाहते हैं। क्योंकि यह ‘मानवता का नारा’ है। प्रेम को वे जीवन का मूल आधार मानते हैं क्योंकि यही सभी संबंधों का सार है।
बच्चों को उज्ज्वल भविष्य के सूत्र देती हुई नैतिक संस्कारों और मूल्यों को पोषित करती हुई उनकी अनेक कविताएँ भावी पीढ़ी को समर्पित हैं। वे बच्चों में भगवान का रूप देखते हैं।
‘पानी से दीप’ काव्य-संग्रह बहुत ही प्रासंगिक और आध्यात्मिकतापूर्ण भावाभिव्यक्ति है। जिसका तात्पर्य है कि अगर निश्चय अडिग हो तो असंभव को संभव करना, प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में परिवर्तित करना तथा अक्षमता को क्षमता में बदलना संभव है। उनकी कविताएँ आत्मशक्ति की परिचायक हैं।
डॉ. दिलीप धींग जी को उनके कविता संग्रह के लिए अनन्त बधाइयाँ एवं उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएँ। वे सुदृढ़ समाज के निर्माण हेतु निरन्तर लेखनरत रहें।
समीक्षक - डॉ. मंजु रुस्तगी
पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष :वल्लियाम्मल महिला महाविद्यालय, चेन्नई
राष्ट्रीय सचिव (दक्षिण प्रांत) : महिला काव्य मंच
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