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मढ़ के महादेव: अधूरी यात्रा का पूर्ण वृतांत (यात्रा रिपोर्ताज)

सत्य है, पूर्णता का आनंद संतोष के साथ सच्चा सुख देता है और इस आनंद प्राप्ति का प्रयत्न इसकी पीठिका है, पर कभी-कभी परिस्थिति जन्य अपूर्णता को भी फलश्रुति मानने का संतोष, आनंद बन जाता है। इस दार्शनिक चिंतन-से आज हम साक्षात होंगे, इस विचार-से कोसों दूर 9 फरवरी 2018 को हम लोग निज वाहन द्वारा जल बौछारों से धुले चौड़े राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमाँक सात में भोर की लालिमा का आनंद उठाते चले जा रहे हैं। लक्ष्य है, नरसिंहपुर जिले की करेली तहसील-से लगे ग्राम, आमगाँव के समीप सतपुड़ा श्रृंग-श्रेणियों के सघन वन क्षेत्र की पहाड़ी कंदरा में स्थित, प्राचीन शिव लिंग, जिसे 'मढ़ के महादेव' के नाम से जाना जाता है। मूलतः इस सघन वन-कंदरा के विषय में कम ही लोग जानते हैं। मान्यता है, इस दर्शनीय क्षेत्र की शैल रूपा पिंडी स्वयंभू है। स्वयं माँ प्रकृति ने त्रिलोक-धीश की पिंडी गढ़ी है। यह भी है कि वर्तमान के विकास-चक्र ने परिवर्तन-साक्ष्य यहाँ भी छोड़े हैं। 
हर महाशिवरात्रि को यहाँ मेला भरता है। वर्ष भर उजड़े रहने वाले यहाँ के कच्चे मार्ग- दुकानों, झूलों और लोगों से सज जाते हैं; भर जाते हैं। हमने जब इस स्थान के विषय मे सुना तो उत्सुक हो उठे यहॉं आने। हमने मेले-से कुछ दिन पूर्व जाने का सोचा शायद भीड़-से बचने के लिए...! आमगाँव-से निकट होने के बाद भी राजस्व दृष्टिकोण-से यह क्षेत्र छिंदवाड़ा जिले के पतालकोट रेंज मे आता है। 
मेरे स्वर्गीय ससुर साहब, महेश कुमार श्रीवास्तव का बाल्यकाल इन्हीं प्राकृतिक छटाओं के मध्य बीता। अंतिम समय में उनकी इच्छा यहॉं आने की थी; सर्वसाधन उपलब्धता पश्चात भी हृदय-रोग की पीड़ा ने उन्हें असमर्थ कर दिया था। उन्हें याद करते आज हम उसी दिव्य स्थली के दर्शन के लिए निकले। मढ़ के महादेव सेवा समिति के भाई संजय सोनी और अमित श्रीवास्तव के यात्रा मार्गदर्शन अनुरूप हमने छपारा-से हर्रई, कोटरा मार्ग-से जाना तय किया। यह पूरा रास्ता अच्छी अवस्था में बड़ा रमणीक है। चहों ओर लंबी श्रृंग-मालाएँ, छोटे किंतु स्वच्छ गाँव, सरोवर, वन्य-पुष्पों से आच्छादित वन्य-वीथियाँ और बीच-बीच में अपना रूप बदलता मौसम, सब बड़े अच्छे लगते हैं। हाँ, कुछ कमी भी दिखी; जैसे- मार्ग-निर्देशक बोर्ड न होने के कारण हमारे जैसे नए यात्रियों के लिए मार्ग-भ्रम और भटकाव संभव है। 
इस मार्ग पर हमारे साथ जो सांयोगिक
आश्चर्य हुए वे साझा करता हूँ। सामने मार्ग में एक गाँव पड़ा, जिसका नाम पढ़, हमें हिंदी गद्य साहित्य के प्रथम यात्रा-वृत्त लेखक याद आ गए। जी हाँ! आप सही समझे, 'भारतेंदु हरिश्चन्द' और इस गाँव का नाम है- 'भारतेंदवी...!' यह क्षेत्र सर्पीले घाटों के कारण बहुत सुंदर है। हम, साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विमर्श करते चले जा रहे थे कि सहसा मेरे मुख-से निकाला, "आज-कल के कई ऐसे स्वयंभू साहित्यकार हैं, जिनके न तो लेखन में मर्यादा है न ही ज़ुबान में" और देखिए सामने जो गाँव का नाम मेरी छोटी बेटी ने पढ़ा वह क्या है- 'जुबान!' हम हँस दिए...! 
सालीवाड़ा, गोरखपुर, गोरपानी के एकल मार्ग-से होते हुए हम हर्रई-नरसिंहपुर हाइवे पर आ मिले। पूर्व एकत्रित जानकारी के अनुसार हमें रातामाटी-कोटरा के एकल मार्ग में मुड़ना है, पर पुनः वही स्थिति, कहाँ जाएँ...? कोई व्यक्ति भी दिखाई नहीं दे रहा! तभी कुछ विद्यार्थी वहाँ से निकले, कोटरा का मार्ग पूछने पर उन्होने बड़े आश्चर्य से हमारी ओर देखते हुए रास्ता बता दिया। इन बच्चों की मुँख-भंगिमा ने हमें थोड़ा अचरज में डाला, पर हम आगे बढ़ गए, तो ज्ञात हुआ यह सुनसान बियाबान एकांत मार्ग था।
सतत आगे बढ़ने के साथ आभास होने लगा कि हम गहन वन के आदिवासी बहुल क्षेत्र में पहुँचते जा रहे हैं। हर पल जहाँ प्राकृतिक सौंदर्य बढ़ रहा है; वहीं शहरी जीवन के स्थान पर पिछड़ा ग्रामीण जीवन सामने आ रहा है। नगरीय सपाट मार्ग विदा ले चुके हैं अब तो ग्रामीण मार्ग ही चरैवती-चरैवती के सहायक हैं। मार्ग में साधिकार फुदकते चूज़े, छिरियाँ-बकरियाँ यहाँ के सौंदर्य संवर्धन के प्रतिनिधि हैं। नीचे अनंत-स्पर्शी धारा और ऊपर धारा स्पर्श का भान कराता नभ। वाह! कितनी शांति है यहाँ। गाँवों मे इक्का-दुक्का घरों में काष्ठ निर्मित किवाड़ दिखे, शेष जगह बाँस और मिट्टी के ही हैं। झोपड़ियाँ भी कच्ची हैं, पर विभिन्न कच्चे रंगों से सुसज्जित। खेती की पारंपरिक पद्धति चलन में है। मक्का उत्पादन की प्रचुरता दिखी। इसे सुखाने के लिए बाँस के चौड़े मचानो का उपयोग किया जाता है, संभवतः जानवरों से सुरक्षा के लिए। इसे देख ऐसा लगा कि चढ़ जाएँ उस पर और दोनो हाथ से समेट लें यहाँ का नैसर्गिक सौंदर्य।
जल संग्रहण के लिए मिट्टी की बड़ी नाँदें भी देखने योग्य हैं। यहाँ कुछ लोगों की दृष्टि नए यात्री देख लालच भरी लगी, पर हमने सतर्कता के साथ उन्हें अनदेखा कर दिया। बढ़ती वन सघनता के साथ घटती मानव बस्तियाँ सुनसान क्षेत्र-से निकलने का भान करा रही थीं। चूँकी हम सम्यक संकल्प ले कर निकले हैं अतः भय-भाव से परे; उत्साह से भरे आगे बढ़ते रहे। 
दोपहर हो चली, लगभग दो घंटे से हम चाय की दुकान खोज रहे हैं, पर यहाँ एक भी नहीं दिखी। वह तो 'मम भार्या पाक-प्रबंधन' सुदृढ़ है इसलिए जल और स्वल्पाहार हमारे पास है, अन्यथा इस वन्य मार्ग में पीने के लिए पानी भी नहीं दिखा। अपनत्व से लोग मिले, पर वे स्वयं हमसे सहायता के अभिलाषी दिखे। कुछ बिस्किट के पैकेट्स माही-नौमी ने वहाँ के बच्चों को दिए। कुछ ऐसे कहूँ- ''निस्तेज बस्तियाँ,  मुरझाए चेहरे, सूखे खेत, कच्चे रास्ते, कड़वा सच बयाँ करते, मानवीय विकास का; शिक्षा का; समता का! उनके गाँव पाहुने आए हैं और लोग दुखी हैं कि खाली हैं उनके हाथ, सूखे हैं कंठ, मुरझाए हैं मन कि नहीं है उनके पास गुड़-चना भी खिलाने को। हमारे भी वही भाव, काश कि समेट लाते बहुत सारी खाद्य सामग्री और इन अभिलाषी नन्हे-मुन्हों की झोलियाँ भर देते, जो सघन वन के मध्य सूखी रोटी खाकर रहते हैं।"
जलाभाव तो भारत की लोक समस्या बन रहा है, इसका का क्या दुखड़ा रोएँ...! हम नगर वासी हैं लेकिन प्रतिदिन तरसते हैं जी भर के जल-संग्रहण को। हम भारत के लोग, लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति होने के भाव-से उठे सिर को पालिका-कर्मचारियों के समक्ष श्रीहीन-से झुकाए खड़े रहते हैं। उनकी हर आदेशित सेवा करने को तत्पर। चलिए छोड़ें, इस बात को, यहीं विराम देते हैं। यह हमारी अनंत सामूहिक पीड़ा है। मैं कह चुका हूँ कि इस यात्रा में संयोग-संगम बहुत मिले। देखिए न, विश्राम करने के लिए हम एक ग्राम-सीमा में रुके, बदली छाने लगी तो मेरे पिता जी ने कहा- "साथ में एक फ़ोल्डिंग छाता रखना चाहिए।" तभी वहाँ से कुछ बालक पसीने और धूल-से लथ-पथ उछलते-कूदते आते दिखे। गाँव का नाम पूछने पर उन्होनें जो बताया, सच! हम आश्चर्यचकित रह गए! उस गाँव का नाम था 'छाता कला।' रातामाटी, बमहोड़ी होते हुए हम इंटीरियर गाँव भौंड पहुँचे। यहाँ 'टी-मार्ग-संगम' मिलता है, आगे का रास्ता पूछने के लिए हम सामने की वन-चौकी में गए। वहाँ मात्र एक बंदा उपस्थित था और वह भी नशे मे इतना धुत्त कि 'क्या खड़े हो और क्या बात करे'। बड़ी मुश्किल से उसने बाएँ मुड़ने का संकेत किया। आगे एक विद्यार्थी विहीन विद्यालय दिखा, जहाँ दो शिक्षक धूप-छाँव में आराम से पसरे सरकारी नौकरी का आनंद उठाते दिखे। वाह रे सरकारी औपचारिकताएँ ! क्या सेवा और क्या...वेतन...!! अब हम कोटरा की ओर बढ़ गए, जिसकी वन्य क्रोड़ में मढ़ के महादेव का अदभुद प्राचीन गुफा मंदिर है। 
यह बिया-बान वन्य-मार्ग न केवल कच्चा है अपितु मार्ग-मध्य में इतने बड़े-बड़े गड्ढे हैं कि हमारी छोटी सी कार उनमें समा ही जाए। आकाश छूते ऊँचे-ऊँचे पेड़ और कुछ नही, कुछ भी नही । बस सन-सन करती हवा...! एक स्थान पर तो मुझे उतर कर मार्ग अवलोकन करना पड़ा। सामने सड़क अदृश्य थी बस पत्थर ही पत्थर। तभी न जाने कहाँ से एक ऊँचा-पूरा आदमी पेड़ के पीछे से निकल कर आया और कहने लगा, "आगे फँस जाओगे। मत जाओ।" पश्च्यात वह तीव्रता-से जंगल में चला गया। "भाई सुनो तो...!" मैंने पुकारा। वह रुका नही। हम ओझल होने तक उसे देखते रहे। उसके वचनों ने हमें वचन शून्य कर दिया। हमारी वाहन गति के साथ वैचारिक गति भी अवरुद्ध हो गई। अब क्या करें? जो शिव पल-पल समीप आ रहे थे अचानक रुक गए, क्या क्रोधित हो गए...! 
उत्साह कब उदासी के अधीन हो गया पता ही नहीं चला, जिस लक्ष्य के लिए हम यात्रा कर रहे थे वह रुक गया। सुबह पाँच बजे से घर से निकले थे, दोपहर दो बजे मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर अचानकयात्रा विराम हो गया...! और अब यह अल्प दूरी जलधि सीमा-सी वृहद लगने लगी। जंगल में दूरी का क्या अर्थ है आज समझ आया। न चाहते हुए भी हमे लौटना होगा । उस सुनसान स्थान पर मैं मेरे पिताजी, प्रतिमा और मेरी दोनो बेटियाँ। हमने शीश नवाकर प्रणाम किया शिव को, उस मढ़ के देवता को, अपनी अधूरी यात्रा को।
दुखी मन! मुझे गाड़ी मोड़ना पड़ी। रास्ता इतना सकरा है कि कई बार आगे-पीछे करने के बाद कार मुड़ी, वरना दोनो ओर गहरे गड्ढे मुँह बाए हैं। मन सभी का उदास था! जिन्होने यहाँ से आने की सलाह दी थी संभवतः वे यहाँ की वर्तमान ध्वस्त अवस्था से परिचित न होंगे! हम वापिस हर्रई आ गए जहाँ सर्व प्रथम ठंडे जल-से प्यास बुझाई और गर्म चाय-से च्यास...! यहाँ स्मरण आई उन शालेय विद्यार्थियों की आश्चर्याश्रित मुँख-भंगिमा जिनसे हमने मार्ग पूछा था। संभवतः वे साक्षी होंगे उस कष्ट प्रद मार्ग के, पर संकोच वश हमसे कह न सके।
निराशा के बाद आशा का सूर्योदय होता है। नई ऊर्जा के साथ हमने अब निर्णय लिया कि आमगाँव, पिपरिया के पैदल मार्ग-से जा कर देव-दर्शन करना चाहिए । वह भी कठिन रास्ता था करीब चार किलोमीटर पैदल चलना था इसके बाद भी पूरा परिवार उत्साहित हो उठा। सोचा और हम आगे नरसिंहपुर-से करेली, आमगाँव होते हुए पिपरिया ग्राम पहुँचे। यह गाँव मेरी पत्नी, प्रतिमा की जन्म स्थली है। अब यहाँ उसके ददिहाल का कोई सदस्य नहीं रहता; शेष हैं तो बस यादें, आस-पड़ोस से संबंध और एक टूटा-फूटा बाड़ा। यहाँ प्रतिमा के पिता जी के बाल सखा, चरण जीत चाचा मिले। जितनी देर हम उनके घर में रहे, लगभग उतनी देर बातों के दौरान उनकी आँखों-से प्रेम-अश्रु छलकते रहे। 
प्रतिमा तो मानो अपने बचपन में खो गई। उसने वे सब स्थान दिखाए जहाँ वह पच्चीस वर्ष पूर्व खेला करती थी। क्या आनंद लेने आए थे और क्या आनंद महादेव दिला रहे हैं! चाचा जी ने पैदल मार्ग-से देव स्थान तक जाने के लिए स्पष्ट मना कर दिया। महाशिवरात्री के समय दर्शनार्थियों के लिए विशेष व्यवस्थाएँ रहतीं हैं अतः तब आने की सलाह दी। पुनः हम शून्य पर खड़े थे। दुर्गम, सुरम्य वादियों के महानायक संभवतः आज हमें नहीं बुला रहे हैं। यही तो है 'बुलावा आना या न आना।' शब्दों में छिपे वास्तविक अर्थ आज दृश्य हो रहे हैं। अनुभव का नवीन रूप। धैर्य, बस धैर्य और प्रतीक्षा पुनर्रागमन की यही एकमेव मार्ग है हमारे समक्ष। 
अपनी बूढ़ी आँखों से छलकते जल-कणो को चरण जीत चाचा अँगोछे में यों छिपा रहे थे मानो वह किसी की याद के अमूल्य मोती हों और धरती पर गिर के बिखर जाएँगे। थोड़ा रुक के उन्होंने बताया, "युवा अवस्था में प्रतिमा के पिताजी अकेले उस कंदरा में गहरे अंदर तक गए थे और काफ़ी देर बाद बाहर आए। सभी साथी बहुत घबरा गए थे। वह बहुत हिम्मत वाले व्यक्ति थे। उन्हीं से पता चला था कि अंदर मीठे पानी का एक कुंड भी है। उस समय यह स्थान और अधिक सघन एवं वीरान हुआ करता था। बिरले ही यहाँ आते थे।"
उनकी इन बातों से हमें भान हुआ कि क्यों मेरे ससुर जी अंत समय में इस स्थान की उत्कट दर्शन अभिलाषा रखते थे। क्यों कि यहाँ आज भी जीवित है उनका बचपन, संगी-साथियों के साथ वन्य-भ्रमण का आनंद, गृह क्षेत्र, अदम्य साहस, सुंदर स्मृतियों के रूप में। आह! यह भी वेदना है, जिसे स्वयं देव अपने पास बुलाने वाले थे वह उनके बिंब का दर्शनाभिलाषी था!
सुनहरी धूप, घरों के छज्जों से झाँकती हुई अस्तांचल गमन सूरज के साथ वैसे ही लौट रही है जैसे पिता के साथ छोटी बेटी आस-पास झूमती-ठुमकती चलती है। मढ़ के महादेव के दर्शन के लिए हमने दो स्थानो से जाने का प्रयास किया, पर समीप आ के भी उन तक पहुँच न सके; इसका बहुत दुख है। इस दुख के बाद भी न जाने क्यों मन एक विचित्र आनंद का अनुभव कर रहा है। न मिलने पर भी मिलने-सी तृप्ति!
शिव लिंग के दर्शन नहीं हुए, पर शिवत्व अवश्य आभासित हुआ- "प्राकृतिक सुंदरता के रूप में; पल-पल परिवर्तित होती भाषा-भूषा के रूप में; सुनसान जंगलों में सनसनाती हवा के रूप में; मौसमीं परिवर्तन के रूप में; ध्वस्त मार्ग अवरोधों पर मिलने वाले सहायकों के रूप में; ग्राम्य जीवन रूप में; ऊबड़-खाबड़ पथों पर पड़े उपल-अश्म-पत्थरों के रूप में; निश्छल प्रेम अश्रुओं के रूप में, जीवन की सुंदर स्मृतियों के रूप में और अनंत आस्था के रूप में।" यही हमारी अधूरी यात्रा का पूर्ण वृत्तांत है। 
दिन ढल गया, उधर बस्तियों में दीप जले इधार हमारी कार के हेड लाइट्स जले और पुनः आगमन की आस के साथ लौट चले हम अपने घर को। आभासित हुआ आज वृहदारण्यक उपनिषद का यह श्लोक-
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ 

अखिलेश सिंह श्रीवास्तव 'दादूभाई'


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