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महात्मा गाँधी और हिन्दी


✍️डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल'


मोहनदास करमचंद गाँधी. जी हाँ, गुजराती संस्कृति में नाम के साथ पिता का नाम जोड़ कर सरनाम के साथ गुजराती सांस्कृति की पहचान बनती है. पिता के सम्मान को समर्पित यह संस्कृति आज फिर एक धरोहर के रूप में फिर हमारे देश में करवट बदल रही है. वही चिंतन आज परिवर्द्धित गाँधीवादी दर्शन की आधारशिला बनी है.


स्वतंत्रता के 72 वर्ष तक, स्वच्छंद जीते-जीते हम एक नये दर्शन की तलाश में हैं. जिस तरह आज हम हमारी अध्यात्मिक धरोहर योग परम्परा को अपनाते हुए शांति की ओर क़दम बढ़ा चुके हैं, केवल और केवल गाँधीवादी विचारधारा ही हमें शांति के साथ-साथ, सत्य और अंहिंसा के मार्ग पर चलते हुए नये युग को स्थापित कर सकती है.


आज सत्य और अहिंसा के मार्ग से भटक कर हम जो वातावरण सृजित कर रहे हैं, उससे थकहार कर हम आज एक ऐसी मंज़िल ढूँढ रहे हैं जहाँ सर्वधर्म समभाव हो, सहिष्णुता हो और सर्वोपरि हम विकासोन्मुख, विकासशील का चोला बदल कर एक ऐसा राष्ट्र बनायें जो रामराज्य हो या ना हो पर बापू के सपनों का भारत अवश्य हो.


हम गहराई में जायें तो भले ही हमें लगता हो कि बापू के तीन बंदरों का दृष्टिकोण आज अर्थहीन है, पर मैंने अपनी एक लघु कथा में लिखा है बापू ने देखने-सुनने-कहने के लिए आँख-कान और मुँह बंद करने के लिए तो कहा है पर हम हाथ भी बाँधे रहें,उन्होंने यह तो नहीं कहा था. हमें हाथ खोलने होंगे. हमें हाथों में हथियार नहीं उठाने, पर इन हाथों से ऐसा कुछ कर गुजरना होगा जिससे हमारे देश के वर्तमान हालात बदलें.


हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हम स्वतंत्रता आंदोलन की बातें करते हैं. 2 अक्टूबर को गांधी की सत्य-अहिंसा की बातें, शास्त्री जी के "जय जवान जय किसान' की बातें करते हैं, पर दूसरे दिन से ही हम कमोबेश धीरे-धीरे इसे भूलने से लगते हैं. गाँवों से पलायन करते लोग, शहरों में बढ़ते भाषाई प्रदूषण से बेखबर हम देश को अंधकार की ओर ले जा रहे हैं. बापू के तीन बंदरों के दृष्टिकोण को भूल बंदरबाँट नीति, वोट की राजनीति से अपना उल्लू सीधा करते हुए देश को सांस्कृतिक विघटन की ओर ले जा रहे हैं.


आज हमें पुन: बापू के आदर्शों पर पुनर्विचार करना होगा.


बापू का सम्पूर्ण सम्पूर्ण जीवन हमारे समक्ष समग्र विकास की आधारशिला रखता है. आंदोलन से अंग्रेजों को देश छोड़ने को मजबूर कर देने वाले बापू से महाबापू यानि राष्ट्रपिता बनने और अंत में सत्य अहिंसा के कालजयी वचनों से संत बनने तक की उनकी यात्रा के अनेक पड़ावों ने देश में फैली अराजकता, शोषण, आतंक, अत्याचार, भ्रष्टाचार, अहंकार आदि को देश में बिखराव का मूल कारण मानते हुए जब उन्होंने तुष्टिकरण की गंदी राजनीति से स्वयं को अलग कर लाठी, धोती, नंगे बदन वाले हमारे मूल भारत के आम आदमी का चोला पहना और आम आदमी के बीच में जा कर बैठ कर अपनी विचारधारा को जन्म दिया, तब देश ने माना कि यह असाधारण काम बापू के सिवा कोई नहीं कर सकता था. राजनीति का परिदृश्य तो तब भी वैसा ही था जैसा आज है, शायद इससे भी बदतर था, परिणामस्वरूप हमें कालांतर में पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ौसी बनाने पड़े.


आम लोगों के बीच उठ-बैठ से से ही शायद बापू ने माना कि देश में त्वरित विकास और सम्पूर्ण भारत को एकजुट बनाना है तो हमें गाँव-गाँव शिक्षा की मशाल जलानी होगी. लोगों को शिक्षित करना होगा और यह तभी संभव है, जब हम सम्पूर्ण देश में बोली जाने वाली किसी भी एक भाषा को अपनायें जो राजभाषा भी बने और राष्ट्रभाषा भी. यह चर्चा उन्होंने 1937 में वर्धा में रह कर शिक्षा नीति पर चर्चाओं के दौरान कही और वही मूर्तरूप में आजादी का हमारा बौद्धिक हथियार बना. अंत में जामिया मिलिया विश्वविद्याल के तात्कालिक प्रिंसिपल और बाद में राष्ट्रपति बने डॉ. जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में 'जाकिर हुसैन समिति' का निर्माण किया गया तथा गांधीजी के शिक्षा संबंधी अनुशंसाओं तथा सम्मेलन द्वारा पारित किये गये प्रस्तावों के आधार पर 'नई तालिम' (बुनियादी शिक्षा) की योजना तैयार की गई। 1938 में हरिपुर के अधिवेशन ने इन रिपोर्ट को स्वीकृति दी, जो कि 'वर्धा-शिक्षायोजना' के नाम से प्रसिद्ध हुई और बुनियादी शिक्षा का आधार बनी।


प्रख्यात गाँधीवादी विचारक स्व. डॉ. धर्मपाल का यह कहना "अँगरेजों ने न केवल हमारे अर्थशास्त्र और कुटीर उद्योग को समाप्त कर हमारे पूरे अर्थतंत्र को डस लिया, बल्कि भारत का सांस्कृतिक, साहित्यिक, नैतिक और आध्यात्मिक विखंडन भी किया जिससे भारत अपना भारतपन ही भूल गया और अँगरेजी शिक्षा से आच्छन्न यहाँ के कुछ बड़े घरानों के लोग भारत भाग्य विधाता बन गए।"


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का व्यक्तित्व और कृतित्व आदर्शवादी रहा है। उनका आचरण प्रयोजनवादी विचारधारा से ओतप्रोत था। संसार के अधिकांश लोग उन्हें महान राजनीतिज्ञ एवं समाज सुधारक के रूप में जानते हैं। पर उनका यह मानना था कि सामाजिक उन्नति हेतु शिक्षा का एक मत्वपूर्ण योगदान होता है। वे मानते थे कि दुनिया में कहीं भी जब गुलामी ने अपने पंख फैलाये सर्वप्रथम वहाँ की मातृभाषा पर आक्रमण हुआ और शासकों ने वहाँ पर अपनी पैठ बनाने के लिए वहाँ की मातृभाषा को अपना कर अपनी भाषा को थोपा और लंबे समय तक शासन किया. संसार में मुस्लिम शासन, अंग्रेजी शासन, पुर्तगाली शासन, सोवियत शासन इसका उदाहरण हैं. भाषा ही थी जिसने अपने प्रभाव से इतने पंख फैलाये कि उसके शासन में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था. इसलिए हमें अपने देश में अपनी एक मूलभूत भाषा का विकास करना होगा. दक्षिण, पूर्व और सम्पूर्ण उत्तर भारत की भाषाओं का हमारे देश में प्रभुत्व रहा है किंतु स्वतंत्रता आंदोलन में यदि किसी भाषा ने सेतु का कार्य किया वह थी हमारी भाषा हिन्दी.


वे ग्रामीण अंचलों में अपने भाषण हिंदी में ही देते थे. अंग्रेजी में भाषण पर एक बार उन्होंने सरदार पटेल को टोक दिया था, बाद में पटेल ने अपनी भूल स्वीकार की. बापू कहा करते थे कि हिंदी ही एक भाषा है जो सुसंस्कृत, सभ्य और स्वच्छ भारत का निर्माण करेगी. लंबे समय तक जड़ बनी अंग्रेजी और मुस्लिम संस्कृति से लड़ने वाली एक मात्र भाषा हिन्दी में ही वह सामर्थ्य है जो देश में आने वाली पीढ़ी को एक सही दिशा देगी. हिंदी की एक विशेषता का उल्लेख करते हुए उन्होने कहा कि अरबी और फारसी भाषा से हिंदी लिपि से जन्मी उर्दू के निर्माण में मुस्लिम जगत् हिंदी के योगदान को कभी नहीं भूल पायेगा और हिंदी इस गौरव से अभिभूत है, तो क्यों न हम आज से ही हिंदी को एक नया कलेवर दें. अन्य भाषाओं को उच्चतर शिक्षा प्रणाली में ऐच्छिक रूप में पढ़ने सीखने के लिए रास्ते खुले रहें. विदेशों में ऐसा होता है. उन्होंने बताया कि इंग्लेण्ड में आज भी माध्यमिक शिक्षा में अंग्रेजी के साथ साथ फ्रेंच, स्पेनिश, स्कॉटिश सिखाई जाती है, पर मूल भाषा सम्पूर्ण ब्रिटेन व यूरोप में अंग्रेजी है. दिल्ली और आस पास का वातावरण हिंदी मय है और देश की राजधानी में ऐसी ही एक भाषा हमें वसुधैवकुटुम्बकम् के स्वप्न को साकार करेगी और देश में ही बढ़ती भाषा की खाई को पाटेगी.


गाँधी के प्रयासों से लेकर अब तक हिंदी की राष्ट्रभाषा बनने तक की अनुत्तरित आशा पर बोलते हुए प्रख्यात हिंदी प्राख्याता वास्कोडिगामा, गोवा की डॉ. शुभ्रता मिश्रा कहती हैं कि बापू ने हिंदी में छिपी भारतीय मूल्यों और परम्पराओं के संवर्द्धन तथा आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने की क्षमता को परखते हुए भारत की स्वतंत्रता में इसके उपयोग को भी ढाल बनाया.


कुछ तथ्य राष्ट्रपिता को हिंदी के प्रति पूर्ण समर्पित एक आदर्श हिंदी प्रेमी के रूप में सिद्ध करते हैं-


(1) 1921 में 'यंग इंडिया' में प्रकाशित अपने लेख में उनहोंने लिखा कि हिंदी का अपना भावनात्मक एवं राष्ट्रीय महत्व है और भारत की स्वतंत्रता के लिए समस्त राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को हिंदी सीखना आवश्यक होगा, जिससे सभी कार्यवाहियाँ हिंदी में ही की जा सकें. इसलिए सम्पूर्ण देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में जोरदार प्रचार-प्रसार करते हुए हिंदी को राष्ट्रीय एकता, अखण्डता व स्वाभिमान के रूप में प्रतिष्ठित करना आवश्यक है.


(2) राष्ट्रभाषा प्रचार के दौरान उन्होंने अपने भाषण में कहा कि राष्ट्रभाषा के बिना कोई भी राष्ट्र गूंगा हो जाता है. इसलिए भारत की भी एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए ताकि भारत अपनी बात विश्व के समक्ष रख सके.


(3) बापू की मातृभाषा हिंदी थी और उन्हें अंग्रेजी का उच्चकोटि का ज्ञान था फिर भी वे भारत में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्षधर थे.


(4) सन् 1909 में हिंद स्वराज में एक भाषा-नीति की घोषणा करते हुए लोगों से अपील की कि सम्पूर्ण भारत के लिए हिंदी को राष्ट्रभाषा होना चाहिए भले ही इसे उर्दू या देवनागरी लिपि में लिखा जाये. हिंदू-मस्लिम एकता के लिए यह वैकल्पिक धारणा का मूल उद्देश्य था जिसके मूल में वे अंग्रेजी भाषा को दूर करना चाहते थे.


(5)6 फरवरी, 1916 को गाँधीजी ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालयके एक कार्यक्रम में अपना प्रथम सार्वजनिक भाषण हिंदी में दे कर वहाँ के श्रोताओं को स्तब्ध कर दिया था और अंग्रेजी में संचालन का विरोध कर अपनी वाक्पटुता और हिंदी की सामर्थ्य का दर्शन कराया था.


(6) 1916 में ही उनहोंने कांग्रेस अधिवेशन में भी हिंदी में भाषण दे कर हतप्रभ कर दिया था.


(7) 1917 में भागलपुर में आयोजित एक छात्र सम्मेलन के दौरान महात्मा गाँधी द्वारा दिये गये हिंदी भाषण ने राष्ट्रभाषा कहिंदी की नींव भारतीय जनमानस में विशेषकर युवाओं के मन-मस्तिष्क में डाली थी.


(8) 1917 के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रभाषा प्रचार सम्बंधी सम्मेलन में लोकमान्य तिलक द्वारा अंग्रेजी में भाषण देने पर घोर आलोचना की थी और रवींद्रनाथ टेगौर सहित द्वारा तिलक व टैगोर सहित वहाँ उपस्थित सभी विद्वानों राजनेताओं से हिंदी सीखने की अपील की थी. वहीं उनहोंने पहली बार स्वराजय की अवधारणा को देश के करोड़ों भूखे, अनपढ़ और दलितों जैसे आम भारतीय की भाषा हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने पर बल दिया.


(9) 1918 में इंदौर में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन में उन्हें सभापति बनाया गया था.


(10) दक्षिण भारतीयों की हिंदी को लेकर इसी कठिनाई का समाधान निकालना गाँधीज के लिए एक चुनौती बन गया था, जिसके लिए उनहोंने एकयोजना बनाई और इस काम के लिए विशेष रूप से पुरषोत्तम दास टंडन, बैंकटेश नारायण तिवारी, शिवप्रसाद गुप्ता जैसे हिंदी सेवियों को वहाँ हिंद प्रचार सभा के लिए भेजा था. हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में विस्तार देने के लिए गाँधी ने पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक एक हिंदी नवजागरण महाअभियान छेड़ा था.


बापू के हिंदी के प्रति कठोर सत्याग्रह से विश्व मीडिया भी बहुत प्रभावित था, शायद ही दुनिया का कोई अखबार हो जहाँ उन्होंने गाँधीजी के भाषाणों में शिक्षा नीति, हिंदी, सत्याग्रह, स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी सर्वोपरि भूमिका आदि पर नहीं लिखा हो. 1924 के एक अखबार के सम्पादकीय के कुछ अंशों का हिंदी और महात्मा गाँधी के आदर्शों के संदर्भ में उल्लेख करना जरूरी समझता हूँ, 'हमें बिना विलंब सत्याग्रह की शरण लेकर लीडरों को अपना पिछलगुआ बनने के लिए बाध्य करना चाहिए क्योंकि गांधी-विहीन स्वराज्य यदि स्वर्ग से भी सुंदर हो तो नरक के समान त्याज्य है। यदि आप स्वतंत्रता के अभिलाषी हैं और अपने देश में स्वराज्य को लाना चाहते हैं तो तन, मन, धन से महात्मा गांधी के आदेशों का पालन करना आरंभ कर दीजिये।" एक नहीं उस युग के कितने ही पत्रों में हिंदी के माध्यम से कहे गये शब्दों का यही मुख्य स्वर था। यही शब्द आगे चलकर एक क्रांति बन गये।


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