✍️नवीन माथुर पंचोली
रिवायत को शराफ़त से निभाया ही नहीं जाता।
उधर मैं भी नहीं जाता, इधर वो भी नहीं आता।
उसे मैं सामने पाकर निगाहें फेर लेता हूँ,
वही उसको नहीं भाता, वहीं मुझको नहीं भाता।
जताता है वही अक़्सर सफ़र में होंसला अपना,
कभी कोई मुसाफ़िर जब तलक ठोकर नहीं खाता।
किनारे चाहते हैं रोज़ ही मझधार से मिलना,
मग़र लहरों का पानी दूर इतना चल नहीं पाता।
कभी मिलकर ये सूरज ,चाँद तारे बात करते हैं,
भला हमसे जमाने का अँधेरा हट नहीं पाता।
*अमझेरा धार मप्र
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