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राष्ट्रीयता और आधुनिक हिन्दी कविता



*डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा


वैसे तो ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ का सूत्र साहित्य एवं अन्य कला रूपों के केंद्र में रहा है, फिर भी अलग-अलग स्तरों पर जीते हुए कभी हम स्थानीयता या आंचलिकता के मान-बिन्दुओं की तलाश करते हैं तो कभी राष्ट्रीयता के। वस्तुतः स्थानीयता, राष्ट्रीयता और वैश्विकता के आयाम परस्पर पूरक भूमिका निभाते चलते हैं। अथर्ववेद का सूत्र ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ प्रत्येक व्यक्ति के सामने पृथ्वीपुत्र होने का प्रादर्श रखता है।


इसी बात को रामायणकार वाल्मीकि राम के मुख से कुछ इस तरह कहलवाते हैं,‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ अपनी जन्मभूमि या भूखण्ड के प्रति प्रेम की इसी अभिव्यक्ति से ‘राष्ट्र’ की अवधारणा ने जन्म लिया। ‘राष्ट्र’  का प्रयोग हमारी परम्परा में तीन परस्पर सम्बद्ध अर्थों में होता आ रहा है। पहला राज्य, देश या साम्राज्य के अर्थ में, जैसे राष्ट्रदुर्गबलानि- अमरकोश, मनुस्मृति, (7/109, 10/61), दूसरा जिले, देश, प्रदेश या मंडल (मनु 7/73) के अर्थ में, जैसा आज भी सौराष्ट्र या महाराष्ट्र जैसे शब्दों में होता है, तथा तीसरा प्रजा, जनता या अधिवासी के अर्थ में (मनु.9/254)।  जाहिर है, जब हम ‘राष्ट्र’ की बात करते हैं, तब उसमें भूमि, जन और उनकी संस्कृति - सब कुछ समाहित हो जाते हैं। यजुर्वेद इसी राष्ट्र के प्रति जागरूक होने का आह्वान करता है, ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहितः।’ स्थानीयता के आग्रहों के बावजूद भारतीय जनमानस में ‘आसेतुहिमालय’ जैसे विस्तृत भूभाग के प्रति गहरा अनुराग सहस्राब्दियों से रहा है। यज्ञानुष्ठानों में जम्बूदीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते कहकर अपनी भूमि के प्रति लगाव की अभिव्यक्ति कई शताब्दियों से जारी है। पुराणकालीन भारत का चित्र समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण के भूभाग को समेटता है, जिसकी प्रजा या संतति को भारती की संज्ञा मिली हुई है- उत्तरैण समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणे।/वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्रा संततिः।। (ब्रह्मपुराण)


विष्णु पुराण (20/3/24) तो इसे स्वर्ग से भी बेहतर ठहराता है- गायन्ति देवाः किल गीतिकानि धन्यास्तु ते भारतभूमि भागे।/स्वर्गापर्गास्पद हेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषः सुरत्वात्।।


अर्थात् भारत में जन्म लेना सौभाग्य की बात है, तभी देवगण स्वर्ग का सुख भोगते हुए भी मोक्ष साधना के लिए कर्मभूमि भारत में जन्म लेने की कामना करते हैं। राष्ट्र-निर्माण के लिए जरूरी घटकों में देश, जाति, धर्म, संस्कृति और भाषा को मान्यता दी जाती है। देश से आशय उसके अपने भूगोल से है, जाति वहाँ रहने वाले जनसमुदाय की बोधक है और फिर सबको धारण करने वाले धर्म का होना भी जरूरी है। यहाँ धर्म संकीर्ण अर्थ का वाचक नहीं है। संस्कृति उस राष्ट्र के जन-समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति यदि उच्चतम चिंतन का मूर्त रूप है तो  है तो भाषा उसका माध्यम है। जाहिर है किसी भी राष्ट्र की एकता इन सभी घटकों के प्रति गहरी आत्मीयता पर निर्भर करती है। राष्ट्रीयता के लिए बेहद जरूरी है बाहरी तौर पर दिखाई देने वाले अंतर के बावजूद आंतरिक समभावना और संगठन। इसीलिए बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ जैसे प्रखर राष्ट्रचेतना कवि ने राष्ट्रीयता को एक भावना मात्र पर अवलम्बित माना है। वे इस भावना  के उदय के पीछे आर्थिक, ऐतिहासिक, भाषा विषयक, भौगोलिक एवं सभ्यता विषयक एकता को नहीं मानते हैं, वरन् प्रेम, घृणा, ईर्ष्या – द्वेष आदि मनोभावों के विकास की श्रेणी में राष्ट्रीय भावना को भी स्थान देते हैं। मनुष्य की एक स्वाभाविक मनोवृत्ति के रूप में विकसित राष्ट्रीयता राष्ट्र के भौतिक और आन्तरिक - समस्त प्रकार के कल्याण की कामना का संवहन करती है। भारतीय संदर्भ में देखें तो अनेक शताब्दियों से राष्ट्रीयता की भावना का उन्मेष होता आ रहा है। खासतौर पर परतंत्रता के दौर में इसका तीखा अहसास भारतीय जनमानस में पैबस्त रहा है।


जहाँ तक आधुनिक युग का सवाल है ब्रिटिश सत्ता के दमनकारी रवैये से क्षुब्ध हो भारतवासियों में राष्ट्रीयता का नया उन्मेष 1850 तक आते-आते दिखाई देने लगा था, जिसकी प्रखर अभिव्यक्ति 1857 के स्वातंत्रय समर में हुई। उस दौर के तराने और लोकाभिव्यक्तियों में फिरंगियों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति की खरी पहचान दिखाई देती है, वहीं गुलामी की जंजीरों की तोड़ने की अकुलाहट भी नजर आती है। उसी दौर में राष्ट्रीयता के अभेद्य और अखंड रूप की नए सिरे से पहचान होने लगी थी,जो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन तक आते-आते और स्पष्ट होती चली गई। सन् 1857 ई. के क्रांतिकारी सैनिकों के कौमी गीत की ये पंक्तियाँ भारतीयता के पहचान बिन्दुओं का साक्ष्य देती हैं,जिसमें भारत का भूगोल भी है, तो यहाँ की आध्यात्मिकता का रंग भी।                                                        


‘‘हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा/पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा/ ये है हमारी मिल्कियत हिन्दुस्तान हमारा/ इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा/ कितनी कदीम कितना नईम, सब दुनिया से न्यारा/ करती है जरखेज़ जिसे गंगो-जमुन की धारा/ ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा/ नीचे साहिल पर बजता, सागर का नक्कारा’’


यह गीत राष्ट्रीय एकता के लिए सर्वधर्म सद्भाव को भी बेहद जरूरी मानता है -


हिन्दु मुसलमां सिख हमारा भाई भाई प्यारा/ यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा।।


1857 से लेकर 1900 तक आते-आते ‘भारत दुर्दशा’ की पहचान भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाओं में तो दिखाई दी ही, द्विवेदी युग इसमें नए आयाम जुड़ने लगे। अपनी गाँव की मिट्टी से प्रेम के साथ सर्वमंगल की कामना और राष्ट्रीय जीवन के संदभों को उठाकर द्विवेदीयुगीन रचनाकारों ने राष्ट्रीयता के उभार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, जिनमें मैथिलीशरण गुप्त, प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, पं. श्रीधर पाठक आदि उल्लेखनीय हैं। इस दौर की कविताओं में पुनर्जागरणकालीन मूल्यों का स्पष्ट विकास दिखाई देने लगा। छायावाद और उसके समानांतर, राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्यधारा में जहाँ स्वदेशाभियान साथ-साथ राष्ट्र के मर्म की बहुआयामी अभिव्यक्ति हुई, वहीं राष्ट्रमुक्ति के लिए निवृत्ति के स्थान पर प्रवृत्ति के पथ पर चलने का आह्वान जन-मन को आंदोलित करने लगा। ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’, ‘वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला हो’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ जैसे गीत राष्ट्र-जीवन को गति देते हुए नई प्रेरणा का संचार करने लगे। माखनलाल चतुर्वेदी ‘पुष्प की अभिलाषा’ में न रीति-शृंगार की परम्परा से जुड़ना चाहते हैं और न सामंती व्यवस्था के अंग बनना चाहते हैं। इस नए दौर में ईश्वर की प्रार्थनालयों में खोजने की बजाय राष्ट्र के रूप में उसकी पहचान की गई। ईश्वर की नई परिभाषा को गढ़ते हुए माखनलाल जी ‘जवानी’ का आह्वान करते हैं - ‘‘प्राण अंतर में लिए पागल जवानी/कौन कहता है कि तू विधवा हुई, खो आज पानी?/ क्या-जले बारूद? हिम के प्राण पाए,/ क्या मिला जो प्रणय के सपने न भाए,/ धरा यह तरबूज है, दो फाँक कर दे,/चढ़ा दे स्वातंत्र्य -प्रभु पर अमर पानी।/ विश्व माने तू जवानी है, जवानी।’’


भारतीय राष्ट्रीयता के उन्नेष में बहुविध स्वर मिले हैं। इन सबसे मिलकर भारत माता का जो स्वरूप बना है, वह आज अधिक काम्य हो गया है। ‘चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी’ के जरिये सन् 1857 के लोक स्वर को दर्ज करने के साथ सुभद्राकुमारी चौहान ने राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने के लिए पुराख्यानों की पुनराख्या की राह भी अपनाई थी, जो सर्वथा नवीन प्रभाव को रचती है। उनकी ‘विजयादशमी’ कविता हमारे सांस्कृतिक प्रतिमानों की युगोचित व्याख्या कुछ इस तरह करती है-


‘‘दो विजये ! वह आत्मिक बल दो वह हुंकार मचाने दो।/ अपनी निर्बल आवाजों से दुनिया को दहलाने दो।/ ‘जय स्वतंत्रिणी भारत माँ’ यों कहकर मुकुट लगाने दो।/ हमें नहीं इस भू-मण्डल को माँ पर बलि-बलि जाने दो।/ छेड़ दिया संग्राम, रहेगी हलचल आठों याम सखी!/ असहयोग सर तान खड़ा है भारत का श्रीराम सखी!/ भारत लक्ष्मी लौटाने को रच दें लंका काण्ड सखी!’’


यहाँ महात्मा गाँधी राम की भूमिका में हैं जो परतंत्रता रूपी बेड़ी को काटने के लिए असहयोग की मुद्रा अपनाते हैं। इस नई रामकथा के नए लंकाकांड को रचते हुए सुभद्राजी आत्मिक बल का संचार चाहती हैं, जो राष्ट्रीयता की अहम पहचान है।


यहाँ महात्मा गाँधी राम की भूमिका में हैं जो परतंत्रता रूपी बेड़ी को काटने के लिए असहयोग की मुद्रा अपनाते हैं। इस नई रामकथा के नए लंकाकांड को रचते हुए सुभद्राजी आत्मिक बल का संचार चाहती हैं, जो राष्ट्रीयता की अहम पहचान है। हमारे महान् क्रांतिकारियों ने तन-मन-धन सब न्यौछावर कर इस राष्ट्र को गुलामी की जंजीरों से मुक्त अवश्य कर दिया है, किन्तु हम अब भी मातृभूमि को संतापों से मुक्त नहीं करा पाए हैं। आज की सबसे बड़ी पीड़ा यही है कि कहीं हम भाषा, धर्म या जाति के नाम पर लड़े रहे हैं तो कहीं क्षेत्र या नस्ल के नाम पर। ‘हिंदू पंच’ का बलिदान अंक जनवरी 1930 में कोलकाता से प्रकाशित हुआ था, जिसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था। उसी अंक में प्रकाशित धनंजय भट्ट ‘सरल’ की कविता ‘जन्मभूमि’ चंद पंक्तियों में बहुत कुछ कह जाती है।


पाल-पोस कर जिसने मुझको/ इतना बड़ा बनाया है।/ जिसे जल-मिट्टी आदिक से/ मेरा तन गया रचाया है।/ उस जन्मभूमि की रक्षा हित/ तन, मन, धन सब वार करें।/ यही जीवनोद्देश्य हमारा/ जननी का संताप हरें। (हिंदू पंच, बलिदान अंक, ‘जन्मभूमि’ कविता, पृ. 206)


समकालीन संदर्भ में राष्ट्रीयता के उन्मेष के लिए जरूरी है कि हमें अपने इतिहास के काल-उजले पन्नों का भान हो, अन्यथा स्वाधीनता पर्व महज रस्म अदायगी से आगे नहीं बढ़ पाएगा। हिंदू पंच के बलिदान अंक में ही प्रकाशित छैलबिहारी दीक्षित ‘कंटक’ की कविता ‘बलिदान’ इस दिशा में महत्त्वपूर्ण संकेत देती है-


‘‘वीर शहीदों की करनी पर हँसते होंगे मंगलमूल,/ बरसा रहे गगन से देखो? सादर सुर-समूह भी फूल।/ ये रहस्य से भरे न कोई इनको सकता यों ही भूल/ तरुण-तपस्वी तर जाते हैं धर कर इनके पद की धूल।


कंटक जी इस नए दौर में सर्वथा नए पर्वों, नए तीर्थ स्थलों के निर्माण का संकेत देते हैं। बलि-वेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीरों का निस्पृह बलिदान व्यर्थ नहीं गया है, जिसकी दशकों पहले कल्पना की गई थी -


जिस दिन जहाँ करेंगे ये सब/ स्वर्ग लोक को चिर-प्रस्थान।/ वह दिन होगा पर्व और/होगा वह स्थल तीर्थ-स्थान।।/ चमकेगा -दिन-दिन चमकेगा -वीरों का निस्पृह बलिदान,/उठा सकेगा जग के सम्मुख फिर सगर्व सिर हिन्दुस्थान।/ नस-नस में बिजली दौड़ेगी सुनकर इनका गौरव-गान,/ गर्म खू़न खौलेगा, फड़केगी फिर शूरों की सन्तान।।/ पढ़कर यह इतिहास गुलामी का,/ सचमुच आयेगा रोष।/ देखेंगे दाँतों में ऊँगली दिये,/ लोग वह जीवित जोश।।


नागार्जुन की कविता ‘उनको प्रणाम!’ भी बलिवेदी पर प्राणोत्सर्ग करने वाले मातृभूमि के असंख्य वीर पुत्रों का भावविह्वल स्मरण कराती है। इस कविता का संकेत साफ है कि यदि हम इन बलिदानियों को भूल गए, तो हमारी कृतघ्नता की कोई सीमा नहीं।


जो नहीं हो सके पूर्ण-काम/ मैं उनको करता हूँ प्रणाम।/ कृत-कृत नहीं जो हो पाए,/प्रत्युत फाँसी पर गए झूल/ कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी/यह दुनिया जिनको गई भूल!- उनको प्रणाम!


जिनकी सेवाएँ अतुलनीय/ पर विज्ञापन से रहे दूर/ प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके/ कर दिए मनोरथ चूर-चूर!-उनको प्रणाम!


सच्ची राष्ट्रीयता वहाँ है, जब राष्ट्र का हर जर्रा प्रिय हो। इकबाल ने कहा है-


पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है/ खाके वतन का मुझको हर जर्रा देवता है।


वे राष्ट्र की जो तस्वीर आँकते हैं, उसमें तुंग हिमालय से लेकर गंगा सहित हजारों नदियाँ अठखेलियाँ करती नज़रआती हैं।


परबत को सबसे ऊँचा हमसाया आस्मां का/ वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा/ गोदी में खेलती हैं इसकी हजारों नदियाँ/गुलशन है जिनके दम से रश्के-जना हमारा। सारे जहाँ से अच्छा....


फिर देश-प्रेम का यह जज्ब़ा तब ज्यादा रंग लाता है, जब हम देश से दूर होते हैं -


गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में/समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा। सारे जहाँ से अच्छा....


बालकृष्ण ‘नवीन’, रामधारीसिंह दिनकर,  श्यामनारायण पांडे, जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द आदि की रचनाओं में जहाँ एक ओर आजादी के आंदोलन की आहट सुनाई देती है, वहीं स्वातंत्र्योत्तर भारत में औपनिवेशिक दासता से मुक्ति की छटपटाहट भी दिखाई देती है। वस्तुतः राष्ट्रीय चेतना को सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से पृथक् मानना बहुत बड़ी भूल होगी। इन सभी कवियों का संकेत साफ है कि हम राजनीतिक दृष्टि से ही स्वाधीनता न हों, वैचारिक धरातल पर भी स्वातंत्रय चेतना बनें। इसीलिए दिनकर को लगता है, आज भी समर शेष है-


समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा।/ और नहीं तो तुझ पर पापिनी महावज्र टूटेगा।


बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ को उस जन-गण की चिंता है, जो भूख और अभाव से ग्रस्त हैं। वे नयी सामाजिक संरचना को गढ़ने को जरूरी मानते हैं, जिसके बिना आजादी का कोई अर्थ नहीं रहेगा।


हाय! इन्हीं आँखों से देखे/ ज्वाला में लिपटे मानव-तन/ होते भस्मीभूत विलोके/ मैंने अपने ही सब जन-गण।/ आज चतुर्दिक धधक रही है/ अति विकराल भूख की होली,/ और बनी जन-गण की आँखें/ फैली, फटी भीख की झोली!/ देखो, छाती पर पत्थर रख,/ वह समूह नर-कंकालों का।/ देखो, झुण्ड आ रहा है वह/ भूखे, नंगे कंगालों का!/यूँ तो वह आ नहीं रहा है,/वह तो रंच लड़खड़ाता है,/ सामाजिकता के पिंजड़े में/पंछी तनिक फड़फड़ाता है!/ हम पत्थर हैं, या कायर है/ जो यह सर्वनाश लखकर भी-/रच न सके नव सामाजिक क्रम,/ये इतने कटु फल चखकर भी!/ क्या यह बात असम्भव थी कुछ/कि सब सूत्र अपने कर होते ?/ अपना घर अपना ही होता/ यदि हम कुछ कम कायर होते (दग्ध हो रहे हैं मेरे जन)


समकालीन हिन्दी कविता में भी राष्ट्र के सामने मौजूद संकटों और राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्त्वों को लेकर चिंता का स्वर उभार पर है। आज की कविता भारत की समकालीन दुरावस्था से बेचैनी का साक्ष्य देती है। कवि धूमिल को यदि आजादी के भटकाव का बेचैन कर देने वाला अनुभव होता है, तो उनकी पीड़ा समझी जानी चाहिए-                                                      या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है/ जिन्हें एक पहिया ढोता है या/ इसका कोई खास मतलब होता है।


आज का कवि भी भारत में जन्म लेने का अर्थ पाना चाहता है, किंतु उसे वह पारस्परिक वैमनस्य, हिंसा और आतंक की भेंट चढ़ गया-सा लगता है। इसी तरह भूमण्डलीकरण के नाम पर भारत का पश्चिमीकरण और उपभोक्तावाद का सर्वग्रासी विस्तार जारी है। आलोकधन्वा की कविता ‘सफेद रात’ की पंक्तियाँ हमारे राष्ट्र-जीवन के इन्हीं त्रासों को मूर्त करती है-


लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ/ इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद/ कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़/ अब इन्हीं शहरों में/कई तरह की हिंसा कई तरह के बाजार/कई तरह के सौदाई/इनके भीतर इनके आसपास/ इनसे बहुत दूर बम्बई हैदराबाद अमृतसर/ और श्रीनगर तक/हिंसा / और हिंसा की तैयारी/ और हिंसा की ताकत/बहस नहीं चल पाती/ हत्याएँ होती हैं/ फिर जो बहस चलती है/ उसका भी अंत हत्याओं में होता है/ भारत में जन्म लेने का/ मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था/ अब वह भारत भी नहीं रहा/ जिसमें जन्म लिया


आजादी की रक्षा तभी सम्भव है, जब हम राष्ट्रीयता के निर्धारक तत्त्वों की खरी पहचान ही नहीं रखें, उन्हें जीवन में आत्मसात् भी करें। वस्तुतः हमें राष्ट्रजीवन को सम्पूर्णता में ही देखना होगा। राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अस्मिता की बात करते हुए समाज के किसी खास वर्ग या समुदाय को छोड़कर लक्ष्य की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है। आज जब देश में अलग-अलग प्रांत और इलाकों के नाम पर अलगाव और विभेद के बीज बोए जा रहे हैं, वहीं एक और अखंड राष्ट्रीयता को खंडित राष्ट्रीयता में ढाले जाने के षडयंत्र जारी हैं, तब आधुनिक कविता के राष्ट्रीय स्वर की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। गिरिजाकुमार माथुर ‘पंद्रह अगस्त’को केवल रस्म अदायगी के रूप में नहीं लेते हैं, इसके जरिये वे गहरी सजगता का आह्वान भी करते हैं, जिसकी जरूरत आज ज्यादा महसूस हो रही है -                                                    


आज जीत की रात/ पहरुए सावधान रहना/ खुले देश के द्वार/ अचल दीपक समान रहना/ प्रथम चरण है नए स्वर्ग का/ है मंजि़ल का छोर/इस जन-मन्थन से उठ आई/ पहली रत्न हिलोर/ अभी शेष है पूरी होना/ जीवन मुक्ता डोर/ क्योंकि नहीं मिट पाई दुःख की/ विगत साँवली कोर/ ले युग की पतवार/ बने अम्बुधि महान रहना/ पहरुए, सावधान रहना!/ ऊँची हुई मशाल हमारी/ आगे कठिन डगर है/ शत्रु हट गया, लेकिन/उसकी छायाओं का डर है/ शोषण से मृत है समाज/ कमज़ोर हमारा घर है/ किन्तु आ रही नई जिन्दगी/ यह विश्वास अमर है/ जन गंगा में ज्वार/ लहर तुम प्रवहमान रहना/ पहरुए, सावधान रहना!


*डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

आचार्य एवं विभागाध्यक्ष,हिंदी अध्ययनशाला,

कुलानुशासक,विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन,मध्यप्रदेश 

 


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