✍️-क्षितिज जैन 'अनघ'
मूर्छित हुई चेतना,जर्जर भारत देश
प्रतिज्ञा है स्वराज की,रहती अब भी शेष।
अस्तित्व ललकार रहे,समय के क्रूर प्रहार
फिसलते पग खो देते,वसुधा का आधार
किंतु बिना प्रयत्न किए,छोड़ कर हम प्रयास
चाहते हैं अब बनना,काल के भुक्त ग्रास।
वीर समर्थ पुरुष हुए,युद्धक्षेत्र में खेत
छोड़ गए पीछे यहीं,करुण स्वर समवेत
विधाता भी ना सुनता,हमारी यह पुकार
कैसे इसी संकट से,मिलेगा हमें पार?
कहीं आर्त स्वर सुने,कहीं दिख रहा क्लेश
प्रतिज्ञा है स्वराज की,रहती अब भी शेष।
सपनों के आवेश में,कर बड़ी-बड़ी बात
सोचा कि यह सफलता,लाई क्या सौगात?
जो रहे सदा ही वंचित,हो बेबस-मजबूर
यह स्वराज का सपना,उनसे कितना दूर!
जिसके लिए किए गए,वे अनगिन बलिदान
सोचा नहीं जाता वही ,राष्ट्र का उत्थान
लेते हैं जिनका सदा,हम आदर से नाम
कब तपस्या का उनकी,आएगा परिणाम?
यह भ्रम मायाजाल का,तथा पतन का भेष
प्रतिज्ञा है स्वराज की, रहती अब भी शेष।
*जयपुर
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