प्रत्येक व्यक्ति दुनिया की हलचल,घटनाचक्र और प्रकृति के परिदृश्यों से प्रभावित होकर कई तरह के अनुभवों से भी गुजरता है ।इनका व्यक्ति के मनोमस्तिष्क पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।इन अनुभवों और प्रभावों से साहित्यकार अछूता नहीं रह सकता है। साहित्य मनीषी एक संवेदनशील और भावनापूर्ण जगत में रहकर एक भिन्न दृष्टि से इन्हें देखता और समझता है और अपने अंदाज में, अपनी शैलीगत विशिष्टता के साथ उसे अभिव्यक्त करता है। सुरेश सौरभ एक ऐसे रचनाकार हैं जो बड़ी ही सहजता और सरलता के साथ अपने लघुकथा संग्रह में अपने अहसासों को प्रकट करते हैं।
सुरेश जी के लघुकथा संग्रह 'तीस-पैंतीस' में कुल 69 लघुकथाएँ हैं। लेखक की लघुकथाओं को एक बारगी पढ़ने मात्र से ही आभासित हो जाता है कि वे संवेनशील व्यक्ति हैं जिनमें गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार,भेदभाव, सामाजिक विषमता, दुरावस्था और बदहाली के खिलाफ गहरा आक्रोश व्याप्त है।उनका सृजन सहज,सरल भाषा में है जो विधा की परिभाषागत बंधनों को स्वीकार नहीं करता जैसा कि उन्होंने पुस्तक की भूमिका में स्पष्टता के साथ लिखा भी है।
वैसे भी लघुकथा किसी समय या क्षण विशेष में उपजा भाव ,घटना या विचार के कथ्य की संक्षिप्त अभिव्यक्ति है। लघुकथा जीवन के काल खण्ड के किसी विशेष क्षण की तात्विक अभिव्यक्ति है।देखा जाए तो कई बार छोटी - छोटी घटनाएँ या किसी विशेष क्षण की तात्विक अभिव्यक्ति विस्तार से अधिक प्रभावशाली हो जाती है।
सुरेश सौरभ जी की लघुकथाओं की पड़ताल यदि करें तो वे अपनी कई लघुकथाओं में उद्देश्यपूर्णता और संदेश देने की दृष्टि से पूर्णरूपेण सफल होते नजर आते हैं।उन्होंने संकेतात्मकता शैली में अपने कहन को बहुत सुन्दर तरीके से पूर्णता दी है। माँ की दवा लघुकथा में उन्होंने चार दिन से माँ के लिए दवा लाना भूल जाने वाले बेटे के माध्यम से पीढ़ियों के मध्य रिश्तों में बन आई दूरी पर सशक्त मार की है। बहरुपिया लघुकथा में -'आदमी हिजड़ा बन रहा है और हिजड़ों को कोई आदमी बनने नहीं देता'पंक्तियाँ ही सब कुछ कह देती हैं।
लघुकथा नागिन डांस में वे भविष्यवक्ताओं की पोल खोलकर रख देते हैं जहाँ महाराज स्वयं दूसरों को तरह-तरह के उपाय बताते हैं और कुछ लोग उनके साथ मारपीट कर भाग जाते हैं तो वे अपने लिए कुछ नहीं कर पाते हैं। रिक्शावाला लघुकथा प्रभावी बन पड़ी है। एक आम आदमी की सीमाएं और रिक्शेवाले का शोषण दोनों बहुत सधे हुए अंदाज में उभारा है। पुराने नोट लघुकथा में व्यक्ति की स्वार्थी प्रवृत्ति पर चोट की गई है ,कितनी शीघ्रता से मानव मन रिश्तों में खरा-खोटापन खोज लेता है।
इसी तरह से मोची,अपने-अपने धंधे, शरारत, गप्प, दैनिक कार्य, आग-फूस, डाक्टर का दर्द, देवर-भाभी,ट्यूटर, पाप,जुबान-बेजुबान, अल्लाह बचाए,संस्कार, तकीब,पतंगे,तीन पत्ते,मुठभेड़ जैसी लघुकथाएँ अपना प्रभाव छोड़ती हैं और पाठकों की संवेदनाओं को झकझोर देती हैं संग्रह के शीर्षक से सम्मिलित लघुकथा तीस-पैंतीस व्यवस्था पर गहरी चोंट करती है।आये दिन वीआईपी लोगों के कारण होने वाले जाम में रोज कमाकर खाने वालों की दुर्दशा बहुत उम्दा तरीके से रेखांकित की है।
सुरेश सौरभ जी का कथा संसार शोषित, पीड़ित आम आदमी के मध्य ही रचा-बसा है।वे अपनी लघुकथाओं में ज्यादा भाषा-शिल्प के चक्कर में न पड़ते हुए अपने अंदाज में अपनी बात कहते हैं।हो सकता है कि लघुकथा विधा के चाणक्य अपनी कसौटी पर कसने के लिए प्रश्न खड़े करें लेकिन सुरेश जी की अपनी विशिष्ट कहन शैली है जो उन्हें लघुकथा के क्षेत्र में अलग पहचान देती है। संग्रह में सम्मिलित कुल 69 लघुकथाओं में से कई लघुकथाएँ उद्देश्यपूर्ण होकर अपनी सार्थकता सिद्ध करती हैं जो अंतस को न केवल स्पर्श करती है । सुरेश जी की इन लघुकथाओं में लेखकीय लापरवाही या विषय से भटकाव प्रतीत नहीं होता है।उन्होंने सामाजिक विसंगतियों पर सटीक प्रहार करते हुए समाज और व्यक्ति के हालातों को इनमें चिन्हित किया है।
सुरेश जी का लघुकथा संग्रह अपने विशिष्ट अंदाज और शैली के साथ पठनीय है।निश्चित ही साहित्य जगत में इसका स्वागत होगा ।
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