*ज्योत्स्ना मिश्रा
आज भोर से ही
हृदय में था अनोखा उल्लास,
मिट गया था
निराशा का तम
बिखर गया था
गुरुभक्ति का प्रकाश।
जागी थी हृदय में
महज एक ही आस
कि इस पर्व को
विशिष्ट बनाना है,
गुरु रीझें जिस पर
वही कर दिखाना है।
भाव- नीर, श्रद्धा- सुमन,
कर्म - प्रसाद बनाऊं,
जीवन की थाली में
बड़े जतन से सजाऊं।
उनकी अपेक्षाओं पर
खुद को खरा उतारूं,
गुरुवर की आरती
कुछ इस तरह उतारूं।
आडंबरो से मुक्त
सेवा -भाव में धारूं,
गुरु सीख से जीवन में
इस तरह संवारूं ।
निर्विकार भाव से
प्रेरित हो प्रत्येक कर्म मेरा
गुरु ज्ञान का ये
सार जीवन -आधार हो मेरा।
इस भाव से नयन मूंद
बैठी जो गुरु ध्यान में
आनंद का मधुर संगीत
बजने लगा कान में।
मैंने तो भाव की
एक बूंद का ही किया था अर्पण,
मगर गुरुकृपा के निर्झर में
भीग उठा मेरा अंतर्मन ।
इस अनुभूति से मन ने
लिया संकल्प विशेष
कि एक पल का ये भाव निवेश
देता है जब आनंद निःशेष
तो फिर क्यों
इससे मैं वंचित रह जाऊं,
एक दिवस ही क्यों
पूरे जीवन को ही
क्यों न गुरुपर्व मैं बनाऊं ।
यूं तो गुरु विचार
हैं मेरे प्रत्येक सृजन का आधार,
किन्तु इसे न समझिए सृजन
यह तो है गुरु चरणों में अर्पित
भाव-सुमनों का हार।
*भोपाल
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