*हरगोविंद मैथिल
समन्दर ग़मों का था मुझ में ।
दरिया सा बहता था मुझ में ।।
दर्द भी था हद से जियादा ।
मोम सा जो पिघला था मुझ में ।।
दर्प अना का भी था ऐसा ।
जो अब पनप रहा था मुझ में ।।
लोग यहांँ कहते हैं अब तक ।
कितना ज़ह्र भरा था मुझ में ।।
ढूंँढ़ रहा था जिसे ज़हां में ।
मैथिल मुझे मिला था मुझ में ।।
*विदिशा
अपने विचार/रचना आप भी हमें मेल कर सकते है- shabdpravah.ujjain@gmail.com पर।
साहित्य, कला, संस्कृति और समाज से जुड़ी लेख/रचनाएँ/समाचार अब नये वेब पोर्टल शाश्वत सृजन पर देखे- http://shashwatsrijan.com
यूटूयुब चैनल देखें और सब्सक्राइब करे- https://www.youtube.com/channel/UCpRyX9VM7WEY39QytlBjZiw
0 टिप्पणियाँ