✍️रवि तोमर रजौधा
सावन में बादल के संग- संग बरसा तनहा मन।
और बुलबुलों में यादों के बिखरा तनहा मन।
नींद तभी आनी थी,आई जब बरसात गई।
भीतर बाहर बिस्तर करने में ही रात गई।
बादल छटने तक छप्पर सा टपका तनहा मन।
चौमासे में सूख रही है आंगन की तुलसी।
छज्जे तक बोगनविलिया की हर पत्ती झुलसी।
बिना तुम्हारे रहता सूने घर सा तनहा मन।
कुछ हासिल करने की खातिर छोड़ा था हंसकर।
सपने में आया फिर वो ही बचपन वाला घर।
सिसक सिसक कर दीवारों से लिपटा तनहा मन।
मुरैना, मप्र
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