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अब गुरुत्‍व भी है ख़तरे में



 

*डॉ गोपालकृष्ण भट्ट आकुल

अब गुरुत्‍व भी है ख़तरे में,

चलो बचाएँ गुरु को पहले.

 

कई साल से जंगल कटते.

भूकंपों के झटके बढ़ते.

देखा वज्रपात का तांडव,

जब-तब तूफ़ानों को उठते.

 

भू घनत्‍व भी है ख़तरे में,

चलो बचाएँ भू को पहले.

 

क्‍यों होते दुष्‍कर्म न जाने.

हैं जवाब में कई बहाने.

माँ भी नहीं सुरक्षित अब तो,

रिश्‍तों पर है सभी निशाने.

 

अब ममत्‍व भी है ख़तरे में,

चलो बचायें माँ को पहले.

 

उम्र बढ़ी पर बूढ़े ज्‍यादा,

अवसादी नव पीढ़ी ज्‍यादा,

उथल-पुथल में सत्‍ता भूली,

किसको आज बचाना ज्‍यादा.

 

अब प्रभुत्व भी है ख़तरे में,

चलो बचायें उसको पहले.

 

आज आक्रमण यहाँ-वहाँ हैं.

जल थल नभ पर जहाँ-तहाँ हैं.

देख रहा संक्रमित हुआ जग,

तनहा मानव कहाँ-कहाँ हैं.

 

आज ज़ि‍ंदगी है ख़तरे में,

चलो बचायें जन को पहले.

 

रहती भू गुरुत्व के वश में.

जीवन पंचतत्व के वश में.

पंचशील से जीवन रक्षित,

बिन गुरु हुआ नहीं है वश में

 

अब गुरुत्‍व भी है ख़तरे में,

चलो बचायें गुरु को पहले.

*कोटा (राज)

 


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