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उर्दू की छतरी के बाहर हिंदी गजल



*चिंतामणि मिश्र


अमीर खुसरों ने “सखी पिया को जो मैं न देखू/तो कैसे काटू अंधेरी रतियां/ किसे पड़ी है जो सुनावे/ पियारे पी को हमारी बतियां” लिख करके हिन्दुस्तान और हिन्दी को गज़लों से परिचय कराया । अरबी फारसी के छन्दविधान,भाव -सम्पदा की छाया में रह कर गजल को परंपरागत गजल कहा जाता है। अपने जन्म से लेकर अब तक इसमें सबसे अधिक प्रयोग और परिर्वतन हुए किन्तु यह आज भी जीवित और लोकप्रिय है। उर्दू गज़लों का केन्द्रीय भाव प्रेम होता है। उसमें एक मतला और एक मक्ता होता है। इनके बीच पांच से बारह तक अशरार रहते हैं। रदीफ और काफिए के बिना गजल की बुनावट सम्भव नहीं है। गज़ल के सभी शेर हमवजन होना चाहिए। मतलब एक ही बहर में होना चाहिए। एक शेर दूसरे से आजाद हो सकता है। जब गजल के सभी अशरार में एक ही भाव शुरू से अन्त तक चलता है तो उसे मुसल्सल गज़ल कहते हैं। बहादुरशाह जफर की तीन अशरार की मुसल्सल गजलको देखा जा सकता है। उजाड़े लुटेरों ने वपो कस्त्र इसके/जो थे देखने दिखाने के काबिल/न घर के हैं,न दर है, रहा एक जफर है/फकत हाले देलही सुनाने के काबिल।


हिन्दी में गज़ल आई तो उसमें उर्दू गज़ल के साथ बहिनापा कायम रहा। परम्परागत बहर, मीटर में कसा एक मतला, भिन्न-भिन्न भाव पर कहे पांच-सात अशरार और अन्त में चमत्कृत कर देने वाला मक्ता शम्भूनाथ शेष, बलबीर सिंहरंग नर्मदाप्रसादखरे की हिन्दी गज़लें ऐसी ही थी। दुष्यन्त,नीरज, बालस्वरूपराही, शेरजंग गर्ग उर्दू के सम्मोहन में रहे । बाद में मुक्तिकाओं के माध्यम से गजल का नया अन्दाज आया जिसमें उर्दू बहर से लयकारी रखनेवाले हिन्दी के मात्रिक छन्दों का इस्तेमाल किया जाने लगा। चन्द्रसेन विराट ने मुक्तिकाओं के माध्यम से गज़ल को नया अन्दाज दिया-फिर पुष्पित हुए पलास पिया/फागुन मांगें भुजपास पिया/सखियों के कंत सभी लौटे/तुम भी आ जाते काश! पिया।


आजादी के बाद भारत में गज़ल कवि सम्मेलनों में खूब पसन्द की जाने लगी।रातों-रात गज़लकार बनने और लोकप्रिय होने के लिए लोग अरबी-फारसी की बहरे सीखने लगे और गलत हिन्दी में गज़लें लिखने लगे। उन्हें न बहर, न मतला-मक्ता की पहचान थी और न हिन्दी का ही ज्ञान था। बस काफिया मिला कर गज़ल लिखने लगे। लेकिन गज़ल का लेबिल लगी इन रचनाओं को कभी लोकप्रियता नहीं मिली। फिर हिन्दी काव्य में गज़ल के रूप में छंद की वापसी हुई, लय भी लौटी। शिल्प और कथ्य पर केन्द्रित नए प्रतीक, बिम्ब और मिथकों के माध्यम से हिन्दी गज़ल में चमक और चुटीलापन लाने का प्रयास शुरू हुआ। फारसी, अरबी, उर्दू से अलग भारत में हिन्दी या यह भी कह सकते हैं कि मिलीज़ली खिचड़ी बोली-भाषा में भी गज़ल की उपस्थिति भक्तिकाल के कवि कबीर के काव्य में भी थी।


भारतेंदु हरिश्चंद्र के जमाने में भी और छायावाद के दिनों में भी इस काव्य-विधा ने जयशंकर प्रसाद तथा निराला को आकर्षित किया था। बाल स्वरूप राही, रामस्वरूप सिन्दूर, शमशेर बहादुर सिंह, बलबीररंग, त्रिलोचन शास्त्री ने गज़ल को अपनाया और विस्तार दिया। कोई भी साहित्यिक रूप का जब एक भाषा से दूसरी भाषा में प्रवेश होता है तो उसकी अतंर्वस्तु में भी बदलाव होता है। उर्दू-फारसी से आई गज़ल हिन्दी में बहुत हद तक बदल चुकी है। हिन्दी गज़ल ने उर्दू गज़ल की रूमानी परम्परा को छोड़ कर यथार्थवादी तेवर अपना लिया है। उर्दू गज़ल की पहचान उसकी रूमानियत है तो हिन्दी गज़ल की पहचान सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चिन्ताए हैं। देश के सामाजिक -राजनीतिक यथार्थ से लेकर मनुष्य के सूक्ष्म मनोभावों तक की अभिव्यक्ति हिन्दी गज़ल में हुई है।


किसानों की आत्महत्या और बदहाली पर हिन्दी गजल को चिन्ता है। रामकुमार कृषक ने लिखा- बीज बोए थे खुशी के /खुदकुशी बोई न थी/चार कन्धों पर फसल ऐसी कभी ढोई न थी। साम्प्रदायिक राजनीति ने अब गांवों के भी भाईचारे को परास्त कर दिया है।सांझी संस्कृति और सांझी विरासत पर खतरा मंडरा रहा है। प्रताप सोमवंशी की गज़ल का एक शेर देखिए-कभी पत्तों में जो कीड़े लगे थे/जड़ों तक वो पंहुचते जा रहे हैं। गजब है मजहबी तलवार से अब/ हमारे गांव काटे जा रहे हैं। मगर ऐसा क्यों हो रहा है उससे भी हिन्दी गज़ल परिचित है। इसका उत्तर विनय मिश्र इस तरह से देते हैं- केवल धन के लोभ में डूबा है परिवेश/कुछ सेठों के हाथ में गिरवी सारा देश। उर्दू के नामी शायर फैज की गज़ल का एक मिसरा है- चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले।


हिन्दी गज़ल के प्रसिद्ध शायर दुष्यंत ने एक शेर कुछयों कहा- तू किसी रेल सी गुजरती है। मै किसी पुलसा थरथराता हूं। फैज और दुष्यंत दोनों में बेचैनी है। समय इतना जटिल और प्रेम विरोधी है कि प्रेमिका का आना खुशवार नहीं, वह भय का एहसास कराता है। रेल गुजरे तो डर जिसे लगता है, वह पुल होता है- कपकपाता हुआ। दुष्यंत के शेर में प्रेम है लेकिन प्रेम करने वाले दो पक्ष हो चुके हैं-रेल और पुल। दोनों अश्आर के लबोलहजे में जो फर्क है वही फर्क हिन्दी और उर्दू गज़ल का है। गीत और गज़ल लिखने और पढ़ने में माहिर सुमेरसिहं शैलेश ने आज के बेईमान वक्त पर लिखा-उजड़ा किसी का घर किसी का वंश मिट गया/ एक रात सियाही में यहां ऐसे ढली। ऐसा भी नही है कि हिन्दी गज़ल ने उर्दू से केवल लिया है और अपनी तरफ से कुछ नहीं दिया।


उर्दू की शुरूआती गज़ल में मिथकों की लम्बी परम्परा रही है। शुरूआत में फारसी मिथकों- प्रतीकों का प्रयोग किया जाता रहा। काबा, कलीसा,कोहेनूर, शेख, बिरहमन, सैयाद, बुलबुल, मीना, साकी सुबु, पैमाना जैसे अनेक मिथक और प्रतीक उर्दू गज़ल में शामिल थे। लेकिन जल्दी ही उर्दू गज़ल भारतीय होती गई। इनमें भारतीय मिथकों का प्रयोग होने लगा उर्दू गजलों में भारतीय महाकाव्यों के पात्रों के जरिए इसे ज्यादा संवेदना और हार्दिकता पैदा की गई ।


पाकस्तिान के शायर जमालुद्रीन हाली जिनके वालिदसतना से पाकिस्तान गए थे, का यह दोहा देखिए-आली तू जो चाहे कहे जाहिर तेरा अंजाम/ सौ-सौ रावण तेरे बैरी, तू लक्षमण न राम। उर्दू गज़ल में राम, कृष्ण,सीता, लक्षमण, रावण, कंस, द्रौपदी राधा, कर्ण, अभिमन्यु अर्जुन, सावित्री, गंगा, जमुना, हिमालयशंकर आदि मिथकों का बड़ी सहालियत के साथ प्रयोग होता रहा है। उर्दु गज़ल में राम के प्रति रागात्मकता ज्यादा दिखती है। राम महज दशरथ पुत्र राजा रामचन्द्र नही हैं। राम विनम्रता का पाठ हैं। वे भारतीय जनमानस में, बनवास भोगते, कष्ट सहते, बुराई से लड़ते महानायक हैं। पाकिस्तान के शायर अफजल जाफरी का यह शेर गौरतलब है- इश्क ने मर के स्वंयबर में इसे जीता है/दिल श्री राम है दिलबर की रिजा सीता है।


फिराक गोरखपुरी इसी को एक भिन्न रूप में लिखते हैं की रिजा सीता है। फिराक गोरखपुरी इसी को एक भिन्न रूप में लिखते हैं- हर लिया है किसी ने सीता को/ जिन्दगी है कि राम का बनवास। भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्कों के उर्दू शायरों ने भारतीय, खास तौर पर हिन्दु मिथकों का अपनी शायरी में भरपूर इस्तेमाल किया है। पाकिस्तान के शायर जीमल मलिक ने लिखा- क्या जंगल और कैसा सावन/ मुझसे रूठ गए मन भावन/मै तन्हा और लंका दुश्मन, इक सीता और कितने रावन ।सिराज अजमली का शेर- मैं बचनबल नहीं भीष्म पितामह की तरह। फिर भी मुझसे न कहो छोड़ तरीका अपना। मैकश अजमेरी कहते हैं-मैं अपने दौर का शंकर हूं इसलिए शायद/मेरे ही हिस्से में सारी बलाए आती हैं। भारतीय मिथकों के प्रयोग में नजीर अकबराबादी को तो बादशाहत हासिल है। हिन्दस्तान हो या पाकिस्तान , हर शायर को ये मिथक अपने से प्रतीत हुए। इस जटिल समय में जब मनुष्यता पर संकट गहराने लगा है , मानवतावादी सोचकमहुई है, आदमी न सिर्फ आत्मकेद्रित हुआ है, वह स्वार्थी, कर्मकांडी और अधैर्य भी हुआ है। ऐसे कठिन समय में फकीराना अंदाज और कबीराना ठाठ की जरूरत है। निगुणिया दर्शन जीवन के लिए लाजमी हो गया है।


हिन्दी गज़ल में जो मिथकीय प्रयोग हो रहे हैं उसका श्रेय उर्दू गज़ल को जाता है। जनता के दुख-दर्द की अभिव्यक्ति के साथ-साथ जनता तक पंहुचने की चिन्ता हिन्दी गज़ल के मूल में है। हिन्दी गज़ल का मूल स्वर यथार्थवादी है और यही इसकी असल ताकत है। यह यथार्थवादी प्रगतिशील कविता के यथार्थवाद से इस अर्थ में अलग है कि हिन्दी गज़ल को जिस जनता या समाज की चिन्ता है, उसके लिए वह बोधगम्य है और उस तक पहुंचती भी है। हिन्दी गज़ल का यथार्थवाद अधिक मुकम्मल है। इस मुकम्मल यथार्थवाद की बेहतरीन अभिव्यक्ति दुष्यंत की गज़लें हैं। सत्तर के दशक का यथार्थ किसी भी हिन्दी कविता की तुलना मे दुष्यंत की गज़लों में अधिक प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त हुआ है। आपातकाल के दमनकारी दौर में दुष्यत ने गज़ल को हथियार की शक्ल में ढाल कर सत्ता को चुनौती ही नही दी बल्कि समय के सच को भी बड़ी प्रखरता से वाणी प्रदान की । बहरहाल यह हकीकत है कि उर्दू की छतरी से हिन्दी गज़ल बाहर जरूर निकल आई है लेकिन दोनों के भीतर बहने वाला खून एक ही है और दोनों का एक दूसरे से लेनदेन चल रहा है।

*सतना (म.प्र.)मो. 9425174450

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)

 


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