मानव जीवन में तीन व्यवस्थाओं का उसकी दैनंदिनी (दिनचर्या) में प्रमुख स्थान है, वे हैं स्वास्थ्य, स्वच्छता और शुद्धता. इसी को समर्पित 500 वर्ष से भी अधिक समय से स्थापित भूमंडलाचार्य महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्य प्रणीत शुद्धाद्वैत पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय अपनी प्रणाली और सिद्धांतों के लिए जाना जाता है. सम्पूर्ण भारत ही नहीं आज विश्व के अनेक देशों में इनके अनुयायियों की शृंखला हैं और इन सिद्धांतों और प्रणालिका का अनुसरण और अनुकरण करते हुए अपने जीवन को पुष्ट कर रहे हैं.
उपर्युक्त विषय पर संक्षिप्त उल्लेख का मूल उद्देश्य शुद्धता और स्वच्छता पर ध्यान दिलाने के लिए किया गया है. इस सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा अपने घरों में भी अनुपालना करते हुए निर्धारित प्रणालिका से जीवन यापन किया जाता है और उनके अनुयायियों को अपने प्रवचनों में इसके अनुसरण और अनुकरण के लिए आग्रह किया जाता है. जीवन में अपरस (स्पर्शास्पर्श) का महत्व समझाती कुछ विधियों का कट्टरता से अनुसरण किया जाता है, जिससे वातावरण कीटाणुमुक्त, शुद्ध और स्वच्छ रहे जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह सम्प्रदाय शुद्धाद्वैत और पुष्टिमार्गीय प्रणालिका पर आधारित है; शुद्धता और पुष्ट आचरण या आचार विचार ही इसकी आधारशिला है.
पुष्टिमार्गीय इस सम्प्रदाय की भारत में सात पीठ स्थापित हैं, जिसकी प्रथम पीठ कोटा में है, इसके अंतर्गत पाटनपोल स्थित श्री मथुराधीशजी मंदिर इस प्रथम पीठ का मंदिर है. पुष्टिमार्गीय पद्धति से संचालित कोटा के अन्य मंदिरों में प्रमुख हैं श्री महाप्रभुजी का मंदिर, जै जै मंदिर एवं मथुराधीशजी का छोटा मंदिर आदि. कोटा में डाढ़देवी मंदिर मार्ग पर स्थित श्रीनाथजी की चरणचौकी भी इसी सम्प्रदाय की एक श्रीनाथजी की बैठक है. इस सम्प्रदाय की अन्य पीठ श्रीनाथद्वारा, काँकरोली (राजसमंद), बनारस, बड़ौदा, गोकुल में एक-एक एवं कामाँ में दो (भरतपुर जिले में) पीठ स्थित हैं. इन सभी पीठों का प्रमुख आराध्य मंदिर नाथद्वारा स्थित श्रीनाथजी मंदिर है. इस सम्प्रदाय के अंतर्गत पीठों के आचार्यवरों द्वारा स्थापित सम्पूर्ण भारत में 84 बैठक हैं जिनके मंदिरों में इस प्रणाली को अपनाया एवं उसका प्रचार प्रसार किया जाता है, उसका मूल ही शुद्धता है, जिसका सीधा सम्बंध हमारे जीवन में स्वच्छता और स्वास्थ्य से है. उच्च आचार-विचार व शुद्धाद्वैत की परम्परा से आकर्षित एवं ऋग्वेद, यजुर्वेद, उपनिषदों एवं अन्य ग्रंथों के विषद ज्ञान सहित श्रीमद्भागवत गीता के मंत्रमुग्ध कर देने वाले धाराप्रवाह प्रवचनों के कारण, इन्हें समय-समय पर तत्कालीन रियासतों में राज्याश्रय प्राप्त हुआ और आज भी इनके स्थापित मंदिरों को राज्य सरकार द्वारा वित्तीय पोषण प्राप्त है. राजस्थान में हाड़ौती में कोटा, झालावाड़, उदयपुर, काँकरोली, बीकानेर, जयपुर भरतपुर क्षेत्र में इस सम्प्रदाय के अनेक मंदिर स्थापित हैं. राजस्थान के अतिरिक्त इंदौर, मथुरा, बनारस, सूरत, अहमदाबाद, जूनागढ़, राजकोट, गोकुल, मुंबई, वेरावल, पोरबंदर, द्वारका आदि स्थानों में मंदिर एवं अनेक स्थानों पर उनके बैठक मंदिर हैं.
इन मंदिरों में श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप की सेवा की जाती है. दूसरे शब्दों में कहें, जिस तरह हम अपने बच्चों की शुद्धता, स्वच्छता, निर्मलता, हल्के सुपाच्य खान-पान और वर्षपर्यंत ऋतुओं के अनुसार दैनंदिनी में विशेष ध्यान दे कर सँभाल करते हैं, लाड़ करते हैं, खेलते हैं. उसका आधार ही पुष्टिमार्गीय पद्धति से नियमित वर्षपर्यंत मंदिरों में ऋतुओं के अनुसार ही सेवा, अर्चना का स्वरूप है. इसी का अनुसरण करते हुए इन मंदिरों में नित्य आठ झाँकियों के दर्शन कराये जाते हैं. लाड़-लड़ाने या मनोरंजन करने,खेल खिलाने के लिए वैष्णवभक्त अष्टछाप कवियों ने आठों झाँकियों के अनुसार ही पदों की रचनायें कीं और मंदिरों में उनके रचित पदों को ही शास्त्रीय राग रागनियों में पिरों कर गायन किया जाता है. जिसके प्रभाव से शुद्ध वातावरण सृजित होता है. ध्रुपद-धमार इसी परम्परा का शास्त्रीय गीत-संगीत है.
जिस प्रकार घरों में शिशु सुबह जल्दी उठ जाता है, इसी कारण इन मंदिरों में सूर्योदय से पूर्व ही ‘मंगला’ के दर्शन (झाँकी) के साथ ही सेवा क्रम से शृंगार, राजभोग (सभी बारह बजे से पूर्व), दोपहर पश्चात् उत्थापन, संध्या एवं शयन के दर्शनों के क्रम से मंदिरों में वर्षपर्यंत दर्शन व झाँकियाँ होती हैं. ऋतु के अनुसार ही वर्षपर्यंत पर्व व उत्सव मनाये जाते हैं. हर पीठ की अपनी प्रणालिका है.
निम्नलिखित कुछ बिंदुओं से संक्षेप में देखें तो ज्ञात होगा कि परम्परागत इस सम्प्रदाय की जीवनशैली से इतर आज देश में आम जन-जीवन की दैनंदिनी कितनी अशुद्ध, अस्वच्छ और अनियमित है. परिणामस्वरूप यदा-कदा अनेक वायरसों के आक्रमण महामारी तक का रूप ले लेते हैं. वायरल बुखार आना तो हमारे जीवन में आज आम हो गया है. इससे शुद्ध और अशुद्ध सभी प्रकार के वातावरण में संक्रमित होने का भय सदैव बना रहता है. चेचक, हैजा जैसी महामारी की तरह आज कोरोना वायरस ने विश्व में महामारी का रूप धारण किया है, यह प्रकृति विरुद्ध जीवन यापन, अशुद्ध आचार विचार का ही प्रभाव हैं-
(1) इन मंदिरों में पूजाभाव नहीं सेवाभाव से आचरण होता है, जिससे जीवन में विनम्रता, सहिष्णुता और सेवा भाव विकसित होता है (2) इन मंदिरों में स्वच्छता और शुद्धता को प्रमुख स्थान दिया जाता है, इसीलिए दूर से दर्शन करने की परम्परा है (3) स्पर्शास्पर्श से दूर रहने के लिए इन मंदिरों में हाथ जोड़ कर दर्शन करने, दंडवत कर समर्पण करने और आचार्यवरों को भी दंडवत करने की परंपरा है, जो एक वैज्ञानिक व योग पद्धति भी है. (3) प्राचीनकाल से ही अनुयायियों द्वारा चरण स्पर्श मात्र से ही पुष्ट होने की परंपरा विकसित की गई (4) दर्शनों में घंटे झालर के साथ आरती के दर्शन करने की परम्परा का उद्देश्य भी यही है कि घंटे झालर की तीव्र ध्वनि से कीड़े-मकोड़े विषाणु, कीटाणु नष्ट होते हैं (5) मंदिर में कृष्ण के विग्रह बाल स्वरूप के स्नान का तुलसी मिश्रित जल ही चरणामृत के रूप में भक्तों को दिया जाता है. इन मंदिरों में किसी भी प्रकार के भोजन में बिना तुलसी के दल के भोग नहीं लगाया जाता है; इस सम्प्रदाय से जुड़ने वालों को तुलसीदल दे कर ही ब्रह्मसम्बंध की दीक्षा दी जाती है और सदैव तुलसी की माला गले में धारण करना आवश्यक होता है. तुलसी का उपयोग बुखार व कई रोगों में अत्यंत कारगर है. इस सम्प्रदाय में रोली (हल्दी व चूना का मिश्रण) से तिलक, चंदन के छाप, नित्य संध्या वंदन योग आदि की शिक्षा दैनंदिनी का नित्याचरण है, जिसका वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है. (6) भोजन के पश्चात् पान या गिलौरी ग्रहण करना भी स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है जो, इसकी परम्परा का एक अभिन्न अंग है (7) इस सम्प्रदाय के अनुसरण व अनुकरण करने वालों वैष्णव भक्तों से आग्रह किया जाता है कि घर का बना भोजन ही ग्रहण करें व बाहर का खानपान यथा संभव निषद्ध हो, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है (8) इन मंदिरों में गोशालाएँ होती हैं. जहाँ इनका संवर्धन और संरक्षण किया जाता है. गोवंश से दूध दही मक्खन छाछ घी आदि बना कर मंदिरों में भोजन सामग्री आदि में शुद्धता से उपयोग में लिया जाता है (9) जैसे बालक को ज्यादा नमक-मिर्च का खाना नहीं खिलाते, उसी प्रकार घर में कम नमक मिर्च का भोजन बनाया जाता है, जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी स्वास्थ्यप्रद है. सुबह जल्दी उठना, दोपहर पूर्व, सायं सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना व रात्रि में दूध ले कर जल्दी सोना इस सम्प्रदाय की प्रमुख दैनंदिनी है (10) कोई भी कार्य करने से पूर्व हाथों को धोने की परंपरा का यहाँ प्रमुखता से पालन किया जाता है. भोजन से पूर्व हाथ व पैर धो कर भोजन करने बैठना, भोजन भूमि पर बैठ कर ही करना, भोजन थाली के नीचे के स्थान को पानी से पोतना या पोंछा लगा कर ही रखना, साथ में जल ले कर बैठना, मौन रह कर भोजन करना आदि का पालन भी किया जाता है. (11) विषाणु मुक्त रहने के कारण प्राचीन काल से ही भोजन ढाक के पत्ते से बने पत्तल दोने में रख कर ही किया जाता रहा है. साथ ही सामर्थ्यवान, धनी एवं सम्प्रदाय के आचार्यघरों में तो चाँदी के बर्तनों में भोजन करने की परम्परा रही है. कई स्थानों पर आज भी यह परम्परा है. धनाढ्य वर्ग के घरों, पाँच सितारा होटलों आदि में में चाँदी के बर्तनों में भोजन परोसने का चलन आज भी है. दक्षिण भारत में आज भी केले के पत्ते में भोजन करने की प्रथा है. (12) इन सम्प्रदाय के परिवारों में आज भी भोजनघर में बाहर के व्यक्तियों का प्रवेश निषेध है तथा रसोईघर या नियत स्थान पर ही परिवार के साथ ही भोजन करने की परम्परा है. (13) जब जब भी शौचादि से निवृत्त होना है, हाथ धोने व स्नान कर शुद्ध होने की परम्परा का निर्वहन प्रमुखता से किया जाता है (14) इस सम्प्रदाय में अनुयायियों द्वारा शीघ्र स्नान व संध्यावंदन आदि नित्य क्रम के बाद कोई भी एक झाँकी के दर्शन या घर में विग्रह स्वरूप की सेवा शृंगार, आरती करने के बाद ही भोजन करने की परम्परा का निर्वहन किया जाता है. रोज दर्शन करना व सत्संग करना भी इस सम्प्रदाय में एक दिनचर्या है जो मिलवर्तन जैसी परम्परा को बढ़ावा देती है (15) विवाहादि के अवसर पर सहभोज एवं पर्व उत्सवों पर कुंडवाड़ा, छप्पनभोग, आदि में जन समान्य को दर्शनों के समय भोजन सामग्रियों के पात्रों के चारों और भूमि पर हल्दी से घेरा लगा कर सुरक्षित किया जाता है ताकि कीटाणु प्रवेश न करें.
नियमित दैनंदिनी में संलग्न रहने व अपनाने से व्यर्थ में इधर-उधर भटकने, पथभ्रष्ट होने से बचा जा सकता है, जिसकी आज महती आवश्यकता है. आज लोग अंशत: भी कुछ परम्पराओं को जीवन में उतार लें तो अनके रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है. यह सम्प्रदाय पूरी तरह मानवीय संवेदनाओं का पोषक मार्ग है जो, शुद्धता और स्वच्छता के उच्च मानकों पर स्थापित है और विश्व में भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जुड़ने का आग्रह करता है.
डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’
(वरिष्ठ साहित्यकार और पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय की छठी पीठ के अंतर्गत श्रीमदनमोहनजी-श्रीमथुराधीशजी मंदिर मथुरा घर के दामाद हैं )
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