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ऑनलाइन के नखरे



*अलका 'सोनी' 

दो शब्द ,जिससे जुड़े रहने में हम भारतीय अपनी शान समझते हैं। एक तो " अंग्रेजी " और दूसरा महान शब्द " प्राइवेट " है। अभी हाल -फिलहाल में एक और शब्द बड़ी चतुराई से इनके साथ हो लिया है, वह है " ऑनलाइन ".....

अब इनकी तिकड़ी क्या गुल खिला रही है, यह हम सब खासकर महिलाएं अच्छी तरह से समझ रही होंगी। यह तिकड़ी और तिकड़मबाजी ज़्यादा पुराना नहीं है। बस दो-तीन महीने पहले ही जन्म लिया है इसने। इसी कोरोना के दिये अनेकों उपहारों में से एक है। 

मार्च के महीने से हर साल नया सत्र शुरू होता था। जब पुराने वर्ग से बच्चे नये वर्ग में जाते थे। नई किताबें, यूनिफॉर्म, नया उत्साह देखते बनता था। कुछ बच्चों के लिए तो विद्यालय के प्रांगण में पहली बार कदम पड़ते थे दाखिला लेने के बाद। लेकिन इस साल ऐसा कुछ नहीं हो पाया। महामारी के फैलने और फिर लॉक डाउन के कारण सबका उत्साह ठंढा पड़ गया। फिर जब बात आई कि जब पढ़ाई नहीं तो फीस नहीं। तब जाकर इनकी खुराफाती खोपड़ी में ऑनलाइन पढ़ाई के कीड़े ने रेंगना शुरू किया। 

बस फिर क्या, धड़ाधड़ ऑनलाइन क्लासेस के टाइम स्लॉट आने शुरू हो गए। आप अपने घर में नहीं हो, नये बच्चों के यूनिफॉर्म नहीं हैं, किताबें नहीं हैं। पाठ्य सामग्री नहीं है, फिर भी ऑनलाइन पढ़ाई शुरू !!

बेचारे अभिभावकों के सामने अजीब ऊहापोह की स्थिति आन पड़ी। घण्टों तक बच्चों को आंख लगाकर, लगातार पढवायें या फिर न पढवायें। 

फिर उसी " तिकड़ी " की जीत हुई। अभिभावकों ने सरेंडर कर दिया। चालू हो गई ऑनलाइन पढ़ाई। बड़े बच्चे धीरे-धीरे पकड़ लिए रफ़्तार लेकिन छोटे बच्चे आँखें मीचे टकटकी लगाए देखते रहते। उनसे भी छोटे यानि नर्सरी के बच्चों के लिए तो यह सब मनोरंजन का एक साधन बन कर रह गया।

पढ़ाई तक हम सामंजस्य बिठाने की कोशिश भी किये , फिर मैडम जी ने ऑनलाइन पिटी करवाना शुरू कर दिया। जो बच्चे बैठ नहीं रहे, वो ऑनलाइन देखकर पिटी क्या करेंगे?।।

उनके लिए यह वीडियो कॉल वाला अनुभव था। माएँ पकड़-पकड़कर बच्चों को बिठाती और वो भागने में लगे रहते। एक खिचड़ी चूल्हे पर पकती रहती तो दूसरी खिचड़ी दिमाग में पकती रहती क़ि बच्चों को कैसे ढंग से पढ़वाएँ ? इस चक्कर में प्रायः चूल्हे की खिचड़ी ही जलकर शहीद होती। 

खैर, जब " तिकड़ी " ने देखा कि यह दुकान तो चल पड़ी तो उसने अब नए जाल बिछाने शुरू किये। अब ऑनलाइन प्रोजेक्ट बनाना, कॉम्पिटिशन भी करवाने लगे। बात यहीं खत्म नहीं हो गई, ऑनलाइन परीक्षाएं, 

ऑनलाइन असेम्बली कराना और घर में बैठे बच्चों को यूनिफॉर्म पहनकर ऑनलाइन कक्षा में आना अनिवार्य कर दिया गया। जो कि बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं है।

अभी का समय कैसा है यह किसी से छिपा नहीं है। जब हम सब्जी, दूध के पैकेट तक धो कर प्रयोग करते हैं। वैसे समय में आये दिन नये प्रोजेक्ट के बहाने बच्चों को बार-बार बाहर से लाकर चार्ट पेपर, कलर्स और बाकी की स्टेशनरी देना सुरक्षित कैसे हो सकता है?

आज का युग तकनीक का है, इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन इस तकनीक का सदुपयोग होना चाहिए न कि स्वार्थ सिद्धि के लिए उसका उपयोग होना चाहिए। जहां जान बचाने के लिए दुनिया संघर्षरत है, वैसे समय में इतने तमाशे करना किसी भी दृष्टि से सही नहीं हो सकता है। अभिभावक तो कुछ बोलेंगे नहीं क्योंकि बिल्ली के गले में घण्टी कौन बांधे वाली बात हो जाएगी !! बस मौन धारण कर मनमानी सहते रहो और हाँ में हाँ मिलाते रहो।

बर्नपुर, पश्चिम बंगाल

 


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