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मीत,तुम क्या गीत को पढ़ पाओगे



*रवि तोमर रजौधा

मीत,तुम क्या गीत को पढ़ पाओगे,

जब पराई पीर को पढ़ ना सके।

 

कुछ मिलेंगे लोग भी पाषाण से,

जो बिना आंसू बहाए रोये हों।

ज्यों लखन की राह तकती उर्मिला ने,

आंख में सूखे समन्दर बोये हों।

 

धेर्य पारावार का कैसे पढ़ोगे,

जब नयन के नीर को पढ़ ना सके

 

पेय होता जा रहा हो नित्य ओझल,

प्यास तृप्ति के लिए गतिशील हो।

वो भला क्या प्यास परिभाषित करेंगे,

भाग्य में जिनके सदा से झील हो।

 

मरुधरा का क्या तुम्हे अहसास होगा,

जब नदी के तीर को पढ़ ना सके।

 

लालसा ना हो उजाले की हृदय में,

तो अंधेरों से भी लड़ना व्यर्थ है।

जब तलक की भावनाएं ना उदित हों,

गीत लिखना गीत पढ़ना व्यर्थ है।

 

भाव के आधार को कैसे पढ़ोगे,

शब्द की प्राचीर को पढ़ ना सके।

 

*द्वारिका धाम कॉलोनी,मुरैना (मप्र)

 


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