Subscribe Us

डरना नहीं, बढ़ते रहो, ऊँचाइयाँ चढ़ते रहो.



*गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल'

डरना नहीं, बढ़ते रहो, ऊँचाइयाँ चढ़ते रहो.

दो दिन की हैं कठिनाइयाँ, हँसके इन्हें सहते रहो.

 

धरती नहीं क्या चल रही, क्या सह रहे मौसम नहीं,

बहती नदी है जिंदगी, नदिया सदृश बहते रहो.

 

है आज जो वातावरण, इंसान की ही खोज है,

स्वच्छंद हो परवाज़, पक्षी की तरह उड़ते रहो.

 

इंसान ने ही एक दिन, उड़के फ़लक को छू लिया,

तुम भर सको यदि वक्त को , भर मुट्ठियाँ चलते रहो.

 

'आकुल' अलग करना यहाँ,  यूँही मिली ना जिंदगी,

कुछ कर ग़ुज़रने को जिगर, फ़ौलाद का करते रहो.

 

*कोटा (राज.)


छंद- हरिगीतिका

मापनी- 2212 2212 2212 2212


 


अपने विचार/रचना आप भी हमें मेल कर सकते है- shabdpravah.ujjain@gmail.com पर।


साहित्य, कला, संस्कृति और समाज से जुड़ी लेख/रचनाएँ/समाचार अब नये वेब पोर्टल  शाश्वत सृजन पर देखेhttp://shashwatsrijan.com


यूटूयुब चैनल देखें और सब्सक्राइब करे- https://www.youtube.com/channel/UCpRyX9VM7WEY39QytlBjZiw 



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ