*गोपालकृष्ण भट्ट 'आकुल'
डरना नहीं, बढ़ते रहो, ऊँचाइयाँ चढ़ते रहो.
दो दिन की हैं कठिनाइयाँ, हँसके इन्हें सहते रहो.
धरती नहीं क्या चल रही, क्या सह रहे मौसम नहीं,
बहती नदी है जिंदगी, नदिया सदृश बहते रहो.
है आज जो वातावरण, इंसान की ही खोज है,
स्वच्छंद हो परवाज़, पक्षी की तरह उड़ते रहो.
इंसान ने ही एक दिन, उड़के फ़लक को छू लिया,
तुम भर सको यदि वक्त को , भर मुट्ठियाँ चलते रहो.
'आकुल' अलग करना यहाँ, यूँही मिली ना जिंदगी,
कुछ कर ग़ुज़रने को जिगर, फ़ौलाद का करते रहो.
*कोटा (राज.)
छंद- हरिगीतिका
मापनी- 2212 2212 2212 2212
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