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संस्कार भूलने लगे थे उनके पुनरावलोकन का भरपूर मौका मिला लाॅकडाउन में


लाकडाउन के चलते स्वयमेव सप्त व्यसनों (त्याग सहित काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहं) पर लगाम लग गई है। ये चीज होना ही होना की जिद वाली मानसिकता को त्याग कर जीना सीख लिया। "समय परिवर्तन शील रहता है। सदा एक-सा नही रहता" यह सुना तो था किन्तु ऐसा सबक देगा, सपने में भी नही सोचा था। पहले समय न होने का रोना रोया करते, अब तो समय ही समय है सबके साथ हिल-मिल रहने का। जरूरी काम से घर की चौखट से निकलने पर लाॅकडाउन का पालन, घर में घुसते ही लाॅकअप में रहने का सलीका सीख गये। परिवार में रहने के संस्कार भूलने लगे थे, उनके पुनरावलोकन का भरपूर मौका मिला।मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने की दुहाई दी जाती थी,अब सोशल डिसटेंस (शारीरिक दूरी) की परिपालना करना जरुरी हो गया जो समय की मांग है। खानपान की दिनचर्या बदलने के आए बेहद सुखद परिणाम । अस्वस्थता में कमी आई है। कल तक हम कहते नही थकते थे -सांस लेने की फुर्सत नही, मौत के खौफ से सांस भी छानकर लेने लगे ।याने जीना है तो पर्यावरण पर ध्यान देना होगा। अंत में एक शेर मुलाहिज़ा हो-'एक मुद्दत से आरज़ू थी फुर्सत की, मिली तो इस शर्त पे कि किसी से ना मिलो।'
*जवाहर डोसी 'पीयूष',महिदपुर (उज्जैन)


 


इस विशेष कॉलम पर और विचार पढ़ने के लिए देखे- लॉकडाउन से सीख 


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