आजकल मजदूर वर्ग पूरी तरह लाइमलाइट में हैं। देशभर के राजनेताओं, समाजसेवियों,कलमकारों, प्रबुद्धजनों के साथ न्यूज चैनलों के पास इनके नाम का भरपूर मसाला हैं। जिसका वो लगातार अपने मतलब का पकवान बनाने में इस्तेमाल कर रहे हैं। राहचलतों को एक बिस्कुट का पैकेट और पानी का गिलास तक न देने वाले बड़ी-बड़ी बात करते नजर आ रहे हैं। एक-दूसरे पर छींटाकशी करने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ा जा रहा है। ऐसी बात नहीं है कि हम मजदूर वर्ग के खिलाफ है। हमें भी इनके साथ दिल से सहानुभूति हैं। जितना बन रहा है सब सहयोग कर रहे हैं। इससे ज्यादा और कर भी क्या सकते हैं। संकट के समय हर किसी को अपनों का साथ चाहिए होता है। ऐसे में वे भी अपनों के पास जाने को जान तक दाव पर लगा रहे हैं। रोजगार के स्थान को छोड़कर बस घर जाने की जिद पर अड़े हैं। इन बेबस बेसहारा मजदूरों के साथ और भी बहुत से मजबूर हैं जिनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा। उनके भी दर्द को जान मरहम लगाने की जरूरत है। अधिकांश ,मजदूर अपने घर पहुंच चुके हैं अब दूसरों के बारे में भी सोचा जाए। मजदूरों के पास तो मनरेगा जॉब कार्ड है। ऐसे में जहां भी रहेंगे काम तो मिल ही जायेगा। मुफ्त में आटा चावल मिल रहे ही हैं। और उनके पास तो जनधन खाता भी है।
अब जरा ऐसे लोगों के बारे में सोचें जिसने कर्ज लेकर मार्केटिंग, कंप्यूटर हार्डवेयर नेटवर्किंग, डिजाइनिंग में न्यू किरएविटी के लिए बीटेक, एमबीए न जाने और कौन कौन से कोर्स डिप्लोमे किये होंगे। बेरोजगारी की भीड़ में अपने आपको नई पहचान दिलाने के लिए इन सूट बूटेड मजदूरों ने सामान्य मजदूरों से भी कम वेतन (मजदूरी) में शुरुआत की होगी। इस लोकडाउन ने उन्हें भी तो उसी राह पर फिर लाकर खड़ा कर दिया है। रोजाना कोस्ट कटिंग के नाम पर ऐसे ही कर्मचारियों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है।
और भी..। प्राइवेट स्कूलों के मास्साहब। 24 घण्टे रेस्पेक्टेड सर की उपमा को धारण करने वाले इन पढ़े-लिखे मजदूरों पर भी किसी का ध्यान नहीं है। हर वर्ष मार्च के महिने में इनकी नौकरी पर तलवार लटकी ही रहती है। ऐसे में मौके को भांप ये एजुकेशन की दूसरी दुकान का काम सम्भाल लेते थे। इस बार तो उनको इस बारे में सोचने का समय ही नहीं मिल पाया। अप्रैल के साथ मई भी अब गुजर जाने को है। 5 दिन बाद जून शुरू हो जाएगा। जून की छुट्टियां वैसे भी इनके लिए शून्यता लिये होती है। ऐसे में जिन्हें मार्च के अंतिम दिनों में कोई और जगह तलाशने की कही गई हो वे तो तीन माह बेरोजगार पक्के हो गए।
बीमा एजेंट यदि कोई बीमा कर ही नहीं पाए तो कमीशन कहां से आएगा? सेल्समैन गाड़ी नहीं बेच पा रहे तो घर बैठे उन्हें कौन शोरूम मालिक तनख्वाह देगा? डीटीपी ऑपरेटर के पास टाइपिंग, लेआउट, डिजाइन का कोई काम था ही नहीं तो रुपए कहां से आते? प्रिंटिंग मशीनें बन्द पड़ी थीं तो मशीनमैन क्या काम करते? खाली बैठी वर्किंग वुमन खुद झाड़ू-पोछा कर रही हैं। तो अब कामवाली बाई तो बेरोजगार हो गई ना। बाहर के पानी पूरी, बर्गर, चना-टमाटर सूप, मैंगो-बनाना शेक से सब बच रहे हैं तो अब वे क्या करें ? उनकी यो यही नौकरी थी। संघर्षशील वकील,पत्रकार बन्धु, एड एजेंट, मार्केटिंग डिपार्टमेंट के साथी, टाईपिस्ट, स्टेनो , रिसेप्सनिस्ट ,ऑफिस बॉय आदि की भी तो कोरोना ने कमर तोड़ रखी है। छोटे दुकानदार, मुंशी जी,मुनीम बाबू, सैलून वाले, रंग रोगन करने वाले, वॉल पेंटर, लकड़ी का काम करने वालों, राजमिस्त्री, विभिन्न छोटी-बड़ी गाड़ियों के ड्राइवर-क्लीनरों आदि को भूला थोड़े ही जा सकता है। इन उच्च स्तर के इन मजदूरों के पास न तो मुफ्त में चावल पाने वाला राशन कार्ड है , न जनधन का खाता। यहां तक गैस सब्सिडी भी इनका साथ छोड़ चुकी हैं। हां, जिम्मेवारियां इनके ऊपर ज्यादा है। स्टेंडर्ड बनाने के लिए ली गई मोटर साइकिल, एलईडी, वाशिंग मशीन, घर की किस्त ब्याज सहित देनी है। वो तो माफ होने से रही। ये ऐसे लोगो का वर्ग है। जो फेसबुक पर दूसरों का दर्द तो उजागर कर सकता है पर अपना दर्द बताने की इनमें हिम्मत ही नहीं है। ये दिखने वाले मजदूर नहीं है ना। क्या कहा। बात सही है। तो फिर हुक्मरानों तक इनकी भी बात पहुंचाएं। ताकि इनके परिवारों को भी कुछ राहत मिल सके।
*सुशील कुमार 'नवीन' ,हिसार
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