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मां शब्द में ही संसार बसा है           

   



*डॉ. रेनू श्रीवास्तव

माता-पिता किसी भी परिवार के वो  दो स्तम्भ है, जिस पर  पूरा परिवार मजबूती के साथ स्थिर रहता है। माता-पिता हमारी संस्कृति के परिचायक हैं। मां जहां वात्सल्य ,ममता ,अपनेपन का एहसास है तो पिता वो  उन्मुक्त गगन है जिसमें हम निश्चिन्त होकर अपनी आशाओं, आकांक्षाओं की उड़ान भरते हैं। मां शब्द को लेकर कवियों ने साहित्यकारों ने बहुत कुछ  कहा है, पर मां को शब्दों में बांध पाना संभव नहीं है।

मां का मन तो  सागर से भी ज्यादा गहरा होने के कारण उसके अंत:करण की थाह को मापना आसान  नहीं है ।इसलिए तो मां पर जितना लिखा जाए कम है ।हमने भगवान को तो नहीं देखा पर वह बिल्कुल मां जैसा होगा ।तभी तो कहा भी जाता है कि भगवान अपने हर बंदे के पास नहीं पहुंच सकता इसलिए तो उसने मां को बनाया है। हमारे वेदों में भी कहा गया है कि प्रथम नमस्कार मां को करना चाहिए और किसी भी बच्चे की पहली गुरु मां को ही माना है।

इसीलिये तो मां के लिए कोई एक दिन नहीं होता है पूरा जीवन उसका है। मां शब्द में संसार बसा हुआ है ।अगर बारिश की बूंदों को हम गिन सकते हैं तो जीवन में मां के अहसानों को भी गिना  जा सकता है ।सहन शक्ति की मूर्ति  है मां ।अपने बच्चों के बिना कुछ बोले, कहे मां उनका सारा दर्द समझ लेती है।मां अपने बच्चों के चेहरों को देखकर पहचान जाती है कि उसके दिल और दिमाग में क्या चल रहा है । मां से बेहतर बच्चे को कोई भी नहीं समझ सकता है। मां को अपने बच्चों के भविष्य के लिए कुनैन की गोली के साथ-साथ मीठा दूध बनना पड़ता है । मां के लिए कितना भी लिखा जाए कम है। इसलिए तो किसी ने खूब कहा है कि "स्याही  खत्म हो गयी "मां" लिखते -लिखते ,उसके प्यार की दास्तान इतनी लंबी थी।"
 


*डॉ. रेनू श्रीवास्तव, कोटा



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