*डॉ रमेश कटारिया पारस
हम तो फ़कत वक़्त गुजरनें की दुआ करते हैं
कुछ ना कुछ रोज़ नया करनें की दुआ करते हैं
मेरे दुश्मन मेरे मरनें की दुआ करते हैं
हम तो संत हैं सबके उबरने की दुआ करते हैं
वो जो रूठा तो क़िस्मत भी हमसे रूठ गई
रात दिन उसके संवरने की दुआ करते हैं
एक खुश्बू की तरह फैल जाऊ गुलशन में
फ़ूल बन के बिखरनें की दुआ करते हैं
कोई देवदूत ही आकर हमको तारेगा
रोज़ उसके जमीं पे उतरनें की दुआ करते हैं
उनके चेहरे पे जमीं है नफ़रतों की जो बरफ
हम तो उसके पिघलनें दुआ करते हैं
हर तरफ़ घोर अँधेरा ही अँधेरा छाया
हम तो अब सूरज के निकलनें की दुआ करते हैं
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उस मालिक के दर पर इक दिन सबको जाँना पड़ता है
जो जो कर्म किये हैं तुमनें सब बतलाना पड़ता है
ये मत सोचो राजा हो तुम मेहमां बनकर आये हो
रूखा सूखा जो मिल जाए वो ही खाना पड़ता है
पतंग तुम्हारी चढ़ी हुई है चारो तरफ़ पतंगें हैं
डर कर भाग नहीं सकते हो पेच लड़ाना पड़ता है
ये मत सोचो कोई तुमको झोली में दे जाऐगा
अपना हक़ पानें की ख़ातिर जोर लगाना पड़ता है
कौओं से बच्चों की रक्षा चिड़िया भी कर लेती है
इसकी ख़ातिर उसको जोर से शोर मचाना पड़ता है
स्वार्थ भरी हुई इस दुनियाँ में तभी दोस्ती चलती है
बुरे वक़्त में हर मित्र का साथ निभाना पड़ता है
ऐसे कोई कैसे तेरी बातों को सच मानेगा
बड़ी मुश्क़िल से पारस ये विश्वास कमाना पड़ता है
पारस जी तुम भूल ना जाओ इसी लिऐ ये ग़जल कही
भूले बिसरे सब मित्रों को याद दिलाना पड़ता है
डॉ रमेश कटारिया पारस ग्वालियर म .प्र.
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