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दुख की किस्त चुकाता हूँ




*कैलाश सोनी सार्थक


अपनी ही किस्मत में लिक्खे,
दुख की किस्त चुकाता हूँ


साधारण मानव सा जीवन,
है काँटों का ताज सुनो
दुख में कल बीता था मेरा,
दुख में बीता आज सुनो


खुद भूखा रहकर अपनों की,
हर दिन भूख मिटाता हूँ


भाषा,भाव,शब्द चुप सारे,
मन की बोली सुनता हूँ
आँख देखती सही गलत को,
उसी कथ्य पे चुनता हूँ


ऊपर से हँसता रहता हूँ,
अंदर नीर बहाता हूँ


पाँव थके या हाथ थक गये,
या मन भी थक जाता है
उमर बढ़ी ये प्रश्न नहीं है,
तन,मन ये पक जाता है


मगर जरूरत के चरणों में,
हर दिन शीश झुकाता हूँ


लायक बना दिया जिस दिन से,
अवनी अंबर देख रहे
भाग रहा किस्मत के पथ पर,
जंतर मंतर देख रहे


प्यासा रहकर मैं अपनों की,
हर दिन प्यास बुझाता हूँ


नाम वाम क्या होता जग में,
नहीं जानता परिभाषा
पूरी करना खुशी सभी की,
यही एक है अभिलाषा


खून पसीने की स्याही से,
अपना कर्म निभाता हूँ


सृष्टिकर्ता की लिखी लेखनी,
उस मानक पर जीना है
अमृत दे या जहर पिलाए,
हँसकर हमको पीना है


ईश लिखे सुख दुख की गाथा,
मन को पाठ पढ़ाता हूँ

*कैलाश सोनी सार्थक, नागदा (उज्जैन)


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