*डॉ विजय कुमार सुखवानी
अब वो रस्मोरिवाज पुराने नहीं रहे
अब वो किस्से वो अफ़साने नहीं रहे
अब पहले जैसे बड़े बड़े घर नहीं रहे
अब घरों में बड़े बूढ़े सयाने नहीं रहे
अब वो खुले खुले से आंगन नहीं रहे
आंगन में पेड़ों के शामियाने नहीं रहे
वो आपस में बतियाते मकान नहीं रहे
अब पड़ोसी भी जाने पहचाने नहीं रहे
अब मांओं के पास लोरियां नहीं रहीं
दादी की कहानियों के ख़जाने नहीं रहे
अब रसोई में गाय की रोटी नहीं रही
छतों पर परिंदों के लिये दाने नहीं रहे
अब वो एक चूल्हे का चलन नहीं रहा
अब वो बड़े कुन्बे वो घराने नहीं रहे
अब बच्चों में वो सुसंस्कार नहीं रहे
अब बड़े भी पहले जैसे सयाने नहीं रहे
अब मेहमानवाजी का दस्तूर नहीं रहा
अब परदेस में अपने ठिकाने नहीं रहे
अब रिश्तों में वो अपनापन नहीं रहा
वो मेलजोल वो आने जाने नहीं रहे
रूठों को मनाने का रिवाज नहीं रहा
अपनों से रूठने के वो बहाने नहीं रहे
अब ईमानदारी पर ईनाम नही रहा
अब जुर्म करने पर जुर्माने नहीं रहे
अब वो ईश्वर जैसे डॉक्टर नहीं रहे
अब मंदिर जैसे दवाखाने नहीं रहे
अब श्री कृष्ण जैसे सारथी नहीं रहे
अब अर्जुन के जैसे निशाने नहीं रहे
अब हनुमान जी जैसे भक्त नहीं रहे
अब मीरा के जैसे दीवाने नहीं रहे
अब दोस्ती की वो मिसालें नहीं रहीं
मोहब्बत के वो अफसाने नहीं रहे
अब इश्क में मर मिटने वाले नहीं रहे
अब शमा के पास परवाने नहीं रहे
अब दिल छूने वाली फिल्में नहीं रहीं
अब वो मधुर सुरीले तराने नहीं रहे
अब वो सीधी सादी दुनिया नहीं रही
अब वो सुकून वाले ज़माने नहीं रहे
*डॉ विजय कुमार सुखवानी, उज्जैन
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