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श्वेतांक कुमार सिंह की कविताएँ



दंगे के दिन 

 

दंगे के दिन

एक नदी हो गयी

हमेशा के लिए लाल

और

रोज सवेरे 

उगने वाला सूर्य

महीनों तक रहा अस्त

शायद

उसकी लालिमा को

खून के छींटों ने

अपवित्र कर दिया था।

 

अँधेरे में सिर्फ

तलवारें चमक रही थीं

और उनकी धार को

मजबूत कर रहीं थीं

कहीं गोलियों की धायं-धायं

तो कहीं पेट्रोल बमों के

मजहबी धमाके।

 

जिस शहर की पहचान

मंदिरों के नामों से थी

और मस्जिदों की गलियां

जिसका पता बताती थीं

वहाँ, इस तरह का 

कुछ भी 

अब नजर नहीं आ रहा था।

चारों तरफ

बिखरे हैं

बड़े-बड़े पत्थर

झुलसे हुए चेहरे

क्षत-विक्षत शरीर

उजड़े हुए घर

परिवार के एकाध बचे लोग

और अपनी माँ को

खोज रहे दूध-पीते मासूम

जिनके आंसुओं को

दंगे की आग ने

सोख लिया है।

 

इनमें से अधिकांश वाकये

लगातार मीडिया में

दिखाए जा रहे हैं

अलग-अलग चैनलों में

अलग-अलग कौम के लोग

जलाए जा रहे हैं।

पर 

वहाँ मृत मिले हैं

कुछ 'बेक़ौम' 

जानवर 

निर्दोष पक्षी

और मासूम बच्चे 

जिनकी आत्मा

लगातार ये पूछ रही है

कि दंगे क्यों होते हैं

ये कौन करता है

वह कौन है

जो इतनी क्रूरता से

मनुष्यता जलाता है।

 

वहीं धड़ाम से

ढहा दी गयी है

मोहन के घर की छत

जिसे अब्दुल ने

पूरे एक साल की

कड़ी मेहनत से बनाया था।

 

शहर के जलने के साथ-साथ

लोगों की 

दुआएँ भी जली हैं

मनुष्यता के मरने के 

साथ हीं

उनके विश्वाश भी मरे हैं।

 

जहाँ सब कुछ

इतना 

डरावना और भयानक है

वहीं कुछ लोग

अभी भी निडर हैं,

दंगे के बीच

डटें हैं मनुष्य की तरह

जैसे

कुछ हिन्दू,

मुस्लिम भाइयों-बहनों को

अपने घरों में छुपा रहे हैं

दूसरी तरफ

कुछ मुसलमान,

हिन्दुओं को 

अपनी टोपी देकर

उनकी जान बचा रहे हैं।

 

इस महान दृश्य को

अपने देश की

किसी मीडिया ने

शायद हीं दिखाया है

पर

मैं दावे के साथ

ये कह सकता हूँ कि

ऐसे हीं कुछ दृश्यों ने

इस देश की

पवित्र-आत्मा को 

जिंदा बचाया है।

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मेरी भाषा 

          

एक हल्की सी खरोंच

छोटी-बड़ी

कैसी भी चोट

और डबडबायी आँखे

जब बातें करती हैं

तो समझ लेना

वो अपनी भाषा बोल रही हैं।

 

माँ के हाँथों की

जली हुई उंगलिया 

और फोकचे

कभी दूसरी भाषा नहीं बोलते।

 

मैं भी ढूँढने लगता हूँ

बेचैन हो उन्हें

पाकिस्तान में,

अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में,

लगभग उन सारी जगहों में

जहाँ मुझे

कोई अपना नहीं जानता।

 

पर जैसे हीं 

लौट आता हूँ

अपने शहर में

मैं भूलने लगता हूँ  'हिंदी'

इतना हीं नहीं

जब भी गांव जाता हूँ

भूल जाता हूँ

'अपनी भोजपुरी' भी।

 

मैं कलकत्ता में

बोल लेता हूँ भोजपुरी

लेकिन दिल्ली में 

शरमा जाता हूँ,

और

कभी अपनी चिड़िया से

कुछ सीख नहीं पाया

जो जाती है

सभी देशों, शहरों और गांवों में

मेरे साथ-साथ

पर बोलती है

हमेशा 'अपनी भाषा',

उसकी अपनी 'मिट्टी की भाषा'।।

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पहले आत्मा का कत्ल हुआ है

 

एक मनुष्य

खून से लथपथ

गिरा-पड़ा

धीरे-धीरे मर रहा है

और दूसरा

ठठाकर

क्रोध में उबल रहा है।

असल में

इस हत्याकांड में

पहले उसने रेता है

आहिस्ता-आहिस्ता

अपनी आत्मा का गला,

फिर कर दिया है कत्ल

एक खास विचारधारा का

जो कर सकती थी उसे नंगा,

उसे भय था कि

वो जला सकती है 

उसकी जुबान,

अपने जैसा सबको

रंग देने की योजना पर

लगा सकती है एक विराम।

 

अब वो मानता है

स्वयं को

सुरक्षित, अविजित और सर्वव्यापी।

पर है 

अपनी आत्मा से पूरा मृत

शायद तभी

न कोई विलाप है और 

न रत्ती भर अफसोस।

वो सिर्फ और सिर्फ

दम्भ से भरे गुब्बारे सा

अट्टहास से उछल रहा है।

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संवेदनाओं के केंद्र में स्त्री

 

सोचना उसके बारे में

जिसे मैं जानता नहीं,

महसूस करना 

उसकी मुफलिसी को 

जिसे पहचानता नहीं,

उसके खाली पेट की 

ऐंठनों को 

कम करने के लिए 

अपने हिस्से की रोटी 

उसे खिला देना 

जिससे कोई वास्ता नहीं,

फिर लड़ना-झगड़ना 

नारे लगाना 

चीखना और चिल्लाना 

उसके लिए आवाज उठाना 

सिर्फ इसलिए 

मुमकिन हो पाया है 

क्योंकि आधी रात में 

मेरी मां ने 

गर्म रोटियां बनाकर

मुझे प्यार से खिलाया है,

लौटकर आता हूं घर 

जब कभी देर से 

बिना किसी उलाहना के,

मेरी पत्नी ने 

सर्द रातों में 

कड़क चाय के प्याले से 

मेरा हौसला बढ़ाया है, 

मेरी दादी ने

तुम्हारे ह्रदय की चुप्पी को 

मेरे स्पंदनों से जुड़ने योग्य

बनाया है,

इतना ही नहीं 

मेरे पास-पड़ोस की

न जाने कितनी महिलाओं ने

तुम्हारी पीड़ा से 

मेरे हृदय को भींगना सिखाया है।

सामाजिक आंदोलनों में 

नारों में 

पोस्टरों में 

भीड़ में 

मंच के आयोजनों में 

सजग डिबेटों में 

चुनावी भाषणों में 

विमर्श की चर्चाओं में 

जो दिखती है यदा-कदा 

लगभग न के बराबर अभी भी

उसके 

महज एक छोटे से हिस्से ने 

असंख्य आंदोलनों का

केंद्र बनकर

उनकी बुनियाद से 

उनके सर्वोच्च

शिखर तक पहुँचाया है।

 


*श्वेतांक कुमार सिंह

(प्रदेश संयोजक NVNUफॉउन्डेशन)

चकिया, बलिया, उत्तर प्रदेश

 

 

 


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