*सुरजीत मान जलईया सिंह
हर रोज की तरह आज की सुबह जब मैं अपनी पत्नी के साथ घर से विद्यालय के लिए निकला तो विद्यालय के मुख्य द्वार से आते हुए मास्टर कर्मवीर पर मेरी नज़र गयी। आंखें उसे देखकर मुस्करा उठी दिल के अन्दर का बच्चा शोर करने लगा ऐसा लगा जैसे आज मैं अध्यापक ना होकर अपने उसी पुराने विद्यालय का दसवीं में पढ़ने वाला छात्र हूँ जो घर से अपनी साइकिल उठा कर रोज अपने विद्यालय की ओर पैडल मारता मस्त हवा के साथ गुनगुनाता हुआ जाता था। मास्टर कर्मवीर दिल से साफ अंदाज से अल्हड और चहरे से मासूम एक बच्चे जैसा जिसने इसी वर्ष विद्यालय में प्राथमिक शिक्षक के पद पर कार्यभार ग्रहण किया है लगता है जैसे वह उन छोटे बच्चों के साथ अपना वह बचपन जी रहा है। जिसे हमने कहीं खो दिया है दिखावे की दुनियाँ के मध्य। किन्तु उसके अन्दर दिखावे जैसा कुछ दिखाई ही नहीं देता वह हर घड़ी मुझे सिर्फ खुश दिखाई देता है। वह इस बात की परवाह बिल्कुल भी नहीं करता कि लोग उसके बारे में क्या कहेंगे यही एक मात्र किन्तु सबसे प्रबल कारण है उसकी मुस्कराहट का जो हमने अपने आप के अन्दर से कहीं खो दी है? सिर्फ यह सोचकर कि लोग क्या कहेंगे और क्या सोचेंगे? किन्तु कर्मवीर साइकिल से विद्यालय आते हुए इस बात की परवाह बिल्कुल भी नहीं करता कि रास्ते में मिलने वाले उसके विद्यार्थी जो अपने परिजनों के साथ गाड़ी से विद्यालय आ रहे हैं या उसके संगी-साथी कार का हौरन मारकर जब उसे तिरक्षी निगाहों से देखकर मुस्करायेंगे तो उसका दिल आहत होगा लेकिन वह उन संगी-साथियों की मुस्कान देखकर परेशान नहीं होता बल्कि खुद और जोर से मुस्करा देता है तब मेरे विस्मय का ठिकाना और भी नहीं रहता जब मैं उसकी मुस्कराहट को उसके अन्दर हँसते हुये देखता हूँ। और हरपल इसी सोच में डूबा रहता हूँ कि वह इतना संतोष लाता कहाँ से है? वह मेरे लिए एक प्रेरणा बन चुका है मेरे अन्दर भी उसे देखकर बार-बार एक साइकिल खरीदने का मन होता है किन्तु बाहर का दिखावा मुझे हर बार ऐसा करने से रोक देता है और ठग ले जाता है मेरी खुशियों को। मैं सिर्फ बाहर से ठीक दिखने की इस कोशिश में अन्दर से बिल्कुल जर्जर हो चुका हूँ। मेरा मन उस साइकिल की सूखी चेन की तरह चरचरा रहा है जिसे मैं बचपन में जबरदस्ती हवा न होने पर भी घर से बाहर खींच ले जाता था। उस ऊहापोह में बार-बार उतरती चेन से हाथ काले करने वाली हिम्मत कब मेरे अन्दर आयेगी मैं अपने अन्दर के कर्मवीर को क्या अब कभी जी पाऊँगा।
*सुरजीत मान जलईया सिंह
दुलियाजान, असम
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