*वर्षा श्रीवास्तव*
क्या तुम्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,
पतझड़ से हो चुके हमारे सम्बन्ध को
रोज़ाना स्नेह से जल की आस में
तड़पते देखते हुए??
या तब जब कोई कली अंकुरित होना चाहें
सदियों से सूखे पौधों में..।।
कौवे छज्जे पे रोज आते,
तकती हूँ मैं दरवाजे को अपने कि
अब तुम दस्तक दोगे..
कब तुम दस्तक दोगे..??
तुम्हें क्या तब भी फ़र्क़ नहीं पड़ता,
अरमानों को जब रोज ही टटोलती हूँ..
दूध से सनी रोटियाँ जब भेजती हूँ।
तुम्हारी निष्ठुरता क्यों
कभी कम नहीं होती??
देखो अब
पुराने पीपल में 'वर्षा' नहीं होती।
इतना कितना ईगो रखते हो,
कि देखकर आँखे मीच लेते हों।
कभी तो फ़र्क़ पड़ेगा तुमको भी,
ये ही आस में सदैव रखती हूँ..
और सदैव
मैं प्रयत्न करती रहूँगी..।।
*वर्षा श्रीवास्तव
छिंदवाड़ा
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