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सुधियों की देहरी पर (समीक्षा)






पुस्तक- 'सुधियों की देहरी पर'


विधा- दोहा


रचनाकार- तारकेश्वरी तरु 'सुधि'


प्रकाशन- अयन प्रकाशन,नई दिल्ली


संस्करण- प्रथम 2019


मूल्य- 200 रूपये


समीक्षक-समीर परिमल


यूँ तो तारकेश्वरी तरु 'सुधि' का पहला प्रकाशित दोहा संग्रह 'सुधियों की देहरी पर' कुछ समय पहले ही मुझे प्राप्त हो चुका था, किंतु समयाभाव के कारण मैं इसे न ठीक से पूरा पढ़ पाया और न ही इसपर कोई प्रतिक्रिया ही दे पाया। यदा-कदा दो-चार दोहे पढ़ता रहा। दोहा जैसी विधा से हिंदी साहित्य जगत में दस्तक देने का साहस करते हुए तारकेश्वरी जी कहती हैं -


भावों की इस देह से, जुड़े सघन एहसास।


यह सुधियों की देहरी, मन में भरे मिठास।।


दोहा हिंदी काव्यशास्त्र का एक प्रमुख छंद है जो दो पंक्तियों के होता है और जिसमें चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों मे 13-13 मात्राएँ एवं सम चरणों में 11-11 मात्राएँ होती हैं। इस मात्रिक छंद के नियमों का पालन करते हुए दो पंक्तियों में अपनी बात कहना आसान नहीं। साहित्य के दो पक्ष होते हैं - कथ्य एवं शिल्प। दोनों के उचित तालमेल से ही कोई भी साहित्य पाठक के भावों को प्रेरित कर पाने में सफल हो पाता है। तारकेश्वरी जी ने शिल्प को बख़ूबी निभाते हुए अपनी बात कहने की कोशिश की है।


मुख्य रूप से इनके दोहे समकालीन सामाजिक सरोकारों पर आधारित हैं। साथ ही कई स्थानों पर उपदेशात्मकता की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है -


ऊँचा उड़ना आपका, बने नहीं अभिशाप।


इसीलिए इंसानियत, कभी न छोड़ो आप।।


उपदेश नैतिक आचरण व कर्तव्य सिखाने की एक पद्धति है। सामान्यतया कर्तव्यों का परिचय बेहद अभिधात्मक शैली में कराया जाता है जिसकी वजह से उपदेशात्मक कथनों में माधुर्य, सरसता या आनंद का समावेश कम ही हो पाता है। किंतु तारकेश्वरी के दोहों में सिर्फ उपदेश नहीं हैं बल्कि उनकी सामाजिक-राजनीतिक चेतना, भक्ति और नैतिकता के साथ अपने चरम पर है। एक नारी, गृहिणी एवं शिक्षिका होने का प्रभाव कई स्थानों पर उनके दोहों में परिलक्षित होता है - 


बना चुकी हैं बेटियाँ, शिक्षा को अधिकार।


क़दम थमेंगे अब नहीं, नहीं रहेंगी भार।।


करो न हत्या गर्भ में, बेटी तेरा अंश।


रखना है अस्तित्व में, उसे किसी का वंश।।


देशभक्ति और समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा से ओतप्रोत दोहे भी हैं -


उन्नत भाषा, संस्कृति, मूल्य, सोच, परिवेश।


इनसे ही है विश्व-गुरु, अपना भारत देश।।


हिंदी भाषा के प्रति कवयित्री का आग्रह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है-


आज जिसे देखो करे, इंग्लिश का गुणगान।


आओ मिलकर दें सभी, हिंदी को सम्मान।।


बहुत अधिक समृद्ध है, करें नहीं अपमान।


मातृभूमि सम दीजिए, हिंदी को भी मान।।


कुछ पक्ष ऐसे भी हैं जो भावनाओं की आंच पर में पकाए गए प्रतीत होते हैं और अनुपम साहित्यिक सौंदर्य को पर्याप्त मात्रा में धारण करते हैं -


तेरी पाती ने लिया, मेरे मन का चैन।


भीगा-भीगा दिल लगे, गीले-गीले नैन।।


दामन में तारे सजा, टिका भाल पर चाँद।


पिय से मिलने चल पड़ी, शब दीवारें फाँद।।


हारी मैं तुझसे सजन, जीती तेरी प्रीत।


तुझको पाना हारकर, ये मेरी ही जीत।।


या फिर -


मन पुलकित बहका हुआ, सुधि फूलों के संग।


किसने रंगा बसंत में, तन-मन केसर रंग।।


कवयित्री ने हर समकालीन मुद्दों को छूने का प्रयास किया है। तपती गर्मी से बेहाल धरती की पीड़ा हो, भ्रष्टाचार की बात हो, पर्व-त्योहारों का वर्णन हो, महिला सशक्तिकरण की बात हो, विकास की दौड़ में प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की समस्या हो, तारकेश्वरी ने अपने दोहों के माध्यम से अपनी चिंता व्यक्त की है।


देखे थे मैंने जहाँ, बड़े-बड़े से खेत।


वहाँ बनी अट्टालिका, फसलें बची न रेत।।


लेकिन उम्मीद का दामन नहीं छूटता -


बदलेगा ये वक़्त भी, मान कभी मत हार।


ज्यों पतझड़ के बाद में, लौटी सदा बहार।।


इस दोहा-संग्रह में कई स्थानों पर कवयित्री का झुकाव आध्यात्मिक रहस्यवाद की ओर भी दिखाई देता है। भाषा की सरलता इस संग्रह की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।


समग्रतः यह कहा जा सकता है कि 'सुधियों की देहरी पर' एक ज़रूरी एवं संग्रहणीय दोहा संग्रह है। तारकेश्वरी तरु 'सुधि' के हिंदी साहित्य-जगत में पदार्पण के दृष्टिकोण से यह संग्रह एक सफल प्रयास है। अयन प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह में उनके कुल 500 दोहे शामिल हैं। प्रथम संग्रह होने के कारण जो छोटी-मोटी त्रुटियाँ हैं उन्हें नज़रंदाज़ करते हुए संग्रह के लिए तारकेश्वरी तरु जी को बधाई और पुस्तक की सफलता के लिए शुभकामनाएँ।


*समीर परिमल,पटना, मो 9934796866







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