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रावण का खिलखिलाना (कविता)





 



*प्रो.शरद नारायण खरे*
हर बार की तरह
लोग फर्ज़ निभा
रहे थे
बड़ी मेहनत से बनाये
दशानन रावण
के पुतले को 
जला रहे थे
लोग खुश थे कि
हर साल
पाप जल रहा है
और पुण्य फल
रहा है 
अधर्म की पराजय
और धर्म की जय है
दुराचरण/अहंकार
का हो रहा 
सतत् क्षय है 
पर,जैसे ही राम के व्दारा
छोड़ा गया 
जलता तीर
रावण के पुतले में घुसा
वैसे ही वातावरण में
गूंज गया एक ज़ोरदार
अट्टहास/ जो
उड़ाने लगा उपस्थितों 
का उपहास
स्वर गूंजा कि नादानो
तुम सैकड़ों सालों से
मूरखता करके 
मन ही मन
व्यर्थ ही
खिलखिला रहे हो
अरे रावण का तो तुम
कुछ भी नहीं बिगाड़
पाये हो 
वह तो तुम्हारे 
भीतर सदा ज़िन्दा है
तुम तो केवल
पुतला जला रहे हो ।।
*प्रो.शरद नारायण खरे, मंडला(मप्र)मो.9425484382








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