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मद के मर्दन द्वारा चेतना का परिष्कार(लेख)



 

*डॉ प्रीति प्रविण खरे*

 

शक्ति उपासना व शक्ति-अर्जन का पर्व है नवरात्र।नवरात्र के नौ दिन वर्ष के सर्वाधिक पवित्र दिवस माने जाते हैं।इन नौ दिनों की रात्रियाँ कुछ विशेष ऊर्जा प्रदान करते हैं,इसीलिए इन्हें नवरात्र कहा जाता है।वर्तमान में हमनें चाहे जितनी भी शक्तियों के आयाम खोज लिए हैं,लेकिन शुद्धि के अभाव में हम उनका सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं।हमारे अंदर ही प्रदूषण इतना भरा हुआ है कि वह विभिन्न तरह की मानसिक व शारीरिक बीमारियों के रूप में उभर रहा है और उसी प्रदूषण का परिणाम है कि आज हमारी प्रकृति माता इतनी प्रदूषित हैं,क्योंकि अंदर का प्रदूषण ही बाहर निकलता है।हमारे अंदर के विचार व भाव ही बाहर दिखाई देते हैं,और हमारे कार्यों पर उनका प्रभाव पड़ता है।आज सब जगह प्रदूषण अपने विभिन्न रूपों में व्याप्त है।इस प्रदूषण को दूर करने के विभिन्न उपाय भी किए जा रहे हैं,लेकिन जब तक मनुष्य अपने वैचारिक प्रदूषण को दूर करने के उपाय नहीं करता,तब तक बाहर का प्रदूषण दूर करने के सभी उपाय व्यर्थ होंगे।अब सवाल ये है कि इस प्रदूषण को दूर कैसे किया जाए? इस वैचारिक प्रदूषण को दूर करने का उपाय है-आत्मा की साधना।इस आत्मसाधना को तीव्रगति देने वाला समय है नवरात्र।हमारे ऋषि-मुनियों ने पर्व-त्योहारों को भी साधना से जोड़ा है,ताकि इन पर्वों के दौरान प्रकृति में प्रवाहित होने वाली ऊर्जा को धारण करने योग्य हम बना सकें।

नवरात्र में माँ जगन्माता के विशेष नौ रूपों की उपासना की जाती है।इनका प्रथम रूप -शैलपुत्री है,द्वितीय स्वरूप ब्रह्मचारिणी,तृतीय स्वरूप चन्द्रघंटा,चतुर्थ स्वरूप कूष्मांडा,पंचम स्वरूप स्कन्दमाता,षष्ठ स्वरूप कात्यायनी,सप्तम स्वरूप कालरात्रि,अष्टम स्वरूप महागौरी और नवम स्वरूप सिद्धिदात्री है।जगन्माता के ये नौ स्वरूप चेतना के नौ आयाम हैं,जिन्हें साधक तब महसूस करता है,जब वह चित्तशुद्धि की प्रक्रिया से गुज़रता है।शक्ति के इन नौ रूपों का आधार केंद्र उसके सूक्ष्मशरीर में स्थित चक्र होते हैं,जो साधना के दौरान ज़ाग्रत होते हैं।चेतना के प्रथम आयाम में साधक का मन मूलाधार चक्र में स्थित होता है।इस आयाम में साधना का मुख्यतः प्रारंभ होता है।इस आयाम की देवी माँ शैलपुत्री हैं।जो जड़ता को भेदकर प्रकट हुईं हैं।इस आयाम में साधना करने से साधक का मन जाग्रत होता है,तमसरूपी जड़ता का शमन होता है।मन निश्छल होता है और काम क्रोध आदि शत्रुओं पर उसे विजय प्राप्त होती है।इस आयाम की देवी माँ ब्रह्माचारिणी हैं।ब्रह्म यानी की परमतत्व,चारिणी यानी आचरण करने वाली।तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचारिणी माँ परमतत्व में लीन रहने वाली व तपस्या का आचरण करने वाली हैं।इस आयाम में स्थित मन,तप में रमता है।चेतना के तृतीय आयाम में साधक का मन मणिपुर चक्र में स्थित होता है।इस आयाम में साधक की देवी चंद्रघंटा हैं।इन्हीं की कृपा से सृष्टि में पहला नाद हुआ।इस आयाम में साधना करने से साधक दिव्य ध्वनियों का श्रवण करता है और उसके उपरांत परम आनंद में रम जाता है।चेतना के चतुर्थ आयाम में साधक की देवि कूष्मान्डा हैं।जब सृष्टि का अस्तित्व ही नहीं था और चारों ओर अंधकार ही अंधकार व्याप्त था,तब इन्हीं देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी।इसी कारण इन्हें कूष्मांडा कहा गया।इस आयाम में पहुँचने से साधक विभूतियों को प्राप्त करता है।चेतना के पंचम आयाम की देवी स्कन्दमाता हैं।ये भगवान स्कन्द यानी कुमार कार्तिकेय की माता हैं,इनकी माता होने के कारण ही इन्हें स्कन्दमाता कहा जाता है।इस आयाम में साधक के मन की समस्त इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।चेतना के षष्ठ आयाम में साधक का मन आज्ञाचक्र में स्थित होता है।इस आयाम की देवी कात्यायनी हैं।प्रसिद्ध महर्षि कत के पुत्र ऋषि कात्य के गोत्र में महर्षि कात्यायन उत्तपन्न हुए।उन्होंने भगवती पारंबा की घोर तपस्या की और उनसे अपने घर में पुत्री के रूप में जन्म लेने का आग्रह किया।ऐसा कहते हैं कि महिषासुर का उत्पात बढ़ने पर ब्रह्मा,विष्णु,महेश -इन तीनों के तेज के अंश से देवी कात्यायनी,महर्षि कात्यायन की पुत्री के रूप में पैदा हुईं।इस आयाम में साधक का मन शक्ति संपन्न बनता है और वह आंतरिक विकारों का शमन करता है।चेतना के सप्तम आयाम में साधक का मन सहस्रार चक्र में स्थित होता है।इस आयाम की देवी कालरात्रि हैं।इनका स्वरूप देखने में अत्यंत भयावह वर्णित है,लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं।इस आयाम में साधक के मन के विकारों का शमन होता है।चेतना के अष्टम आयाम में साधक का मन विकारों से रहित हो जाता है और उसे महागौरी की कृपा प्राप्त होती है,जिनका वर्ण गौर है।विकारों से रहित होने पर साधक का चित्त भी निर्मल व पवित्र हो जाता है और वह योग्यता व पात्रता को उपलब्ध होता है।चेतना के नवम आयाम में साधक को माँ सिद्धिदात्रि की कृपा मिलती है,जो सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं।इस आयाम में साधक अपनी साधना को संपूर्ण कर लेता है और सिद्धि को प्राप्त करता है।गगन्नमाता जीवन के सत्य को,भक्ति के तत्व को प्रकट करती है।जीवन का सत्य एवं भक्ति का तत्व,शब्द के रूप में दो हैं,पर अर्थ के रूप में एक हैं।गहन साधना करके जीवन की सम्यक् अनुभूति पाने वालों का यही कहना है कि भक्ति की प्रगाढ़ता में मन की मलिनता घुलती है,चित्त निर्भार और निर्मल होता है।इस अवस्था में स्वतः ही सब कुछ सिद्ध हो जाता है।जब मधु-कैटभ के द्वारा संकट उत्पन्न किए जाने र आदिशक्ति जगन्माता प्रकट हो उठीं,तब उनको ब्रह्मदेव ने प्रसन्न कर भगवान श्रीहरि को जाग्रत कर दिया।मधु-कैटभ महाबलशाली एवं नहाने पराक्रमी थे।उनके पराक्रम के कारण उन्हें जीतना संभव  था।पाँच सहस्त्र वर्षों तक भगवान श्रीहरि मधु-कैटभ के साथ संघर्ष करते रहे,परंतु परिणाम कुछ  निकला।ऐसे मधु-कैटभ को जगन्माता ने मोह में डाल रखा था,वे दोनों सम्मोहित हो गए।उनके इस सम्मोहन से किसी का भी बचना संभव नहीं था।कहने का तात्पर्य यह है कि अहंकार सब ओर से अज्ञान को प्रकट करता है।जो लोग विभिन्न प्रयासों से अपने अहंकार को पोषित करते हैं,वे प्रकारांतर से अपने अज्ञान को पोषित करते हैं।अज्ञान के अँधियारे में भटकन स्वाभाविक है।जीवन में दिशा-भ्रम स्वाभाविक है।दिशा का भ्रम होने पर व्यक्ति, करने योग्य करता है और  सोचने योग्य सोचता है।तमोगुण की अधिकता में अपने बल के अहंकार में कुछ ऐसी ही दशा मधु-कैटभ की हो गई।इस दशा में उन्हें विस्मरण हो गया कि उनके सम्मुख श्रीहरि हैं,जो जगत के पालनहार हैं।महामाया ने जब उनके ज्ञान का अपहरण कर लिया,तो वे अज्ञान के अँधियारे से घिर गए।अहंकारवश वे भगवान विष्णु को ही वर माँगने के लिए कहने लगे।जो स्वयं वरदाता हैं,उन्हीं को वर देने का प्रयास करने लगे।यही होता है अहंकार और उससे उपजे अज्ञान का परिणाम,जो अपने विनाश को स्वयं निमंत्रण दे डालता है।जो संपूर्ण जगत की जननी है उनके विषय में उपनिषद में कहा गया है-उन परशक्ति से ब्रह्मा,विष्णु एवं रूद्र उत्पन्न हुए।उन्हीं से सब मरुद्गण,गंधर्व,अप्सराएँ और किन्नर पैदा हुए।कहने का तात्पर्य यह है कि त्रिगुणमयी प्रकृति और परमात्मा के मध्य एक ही संबंध है।प्रकृति आधेय हैं तो परमात्मा आधार हैं।प्रकृति व्याप्त हैं तो परमात्मा व्यापक हैं।दोनों के परस्पर संयोग से ही सृष्टि या संसार की उत्पत्ति होती है।संसार में सकारात्मक रूप से क्रियाशील रहने के लिएआज देवी-उद्भव के प्रत्येक आख्यानों से हमें संघर्षों में जीने की शिक्षा मिलती है।इन बातों को गहराई से समझने के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।एक बार कोलाविद्दवंशी ने चैत्रवंशी उन्मन-मन सुरथ नाम के राजा को हरा दिया।तत्पश्चात सूरथ को राज्य त्यागना पड़ा।वे आखेट का बहाना करके वन में चले गए।यहाँ उनका परिचय समाधि नामक वैश्य से हुआ।दोनों व्यक्ति परिवार से दूर रहकर भी अपने-अपने पारिवारिकजनों की चिंता में अधीर थे।मन:शांति की तलाश में,ये दोनों मेधा मुनि के आश्रम में गए।दोनों की व्यथा सुनने के पश्चात मुनि ने कहा यह संसार दुखों से भरा पड़ा है।महामाया सारे संसार की संचालिका हैं।वे ज्ञानियों के चित्त को भी डावाँडोल कर देती हैं।बिना उनकी कृपा के मन को शांति नहीं मिलती।देवी प्रसन्न हैं तो उनका भक्त,धनवान और बलवान होता है।वे जब असंतुष्ट या रूष्ट होती हैं तो सब कुछ समाप्त कर देती हैं।वे जब चाहती हैं तो व्यक्ति से इनको छीन भी लेती हैं,जिससे घटनाएँ उनकी योजनानुसार घटित होती हैं।मेधा मुनि ने सुरथ और समाधि के आग्रह पर देवी के तीन चरित्रों की महिमा का उल्लेख किया।प्रथम चरित्र में जगन्माता का वर्णन किया गया है।विष्णु के कर्ण-मैल से मधु-कैटभ नामक दो राक्षसों का जन्म हुआ,जिनसे सभी देवता भयभीत थे।धीरे-धीरे उनका आतंक और अत्याचार बढ़ने लगा।पीड़ित देवताओं ने व्यथित होकर ब्रह्मा जी को समस्या से अवगत कराया।ब्रह्मा जी ने महामाया की स्तुति की।महामाया ने क्षीर सागर में सोए भगवान विष्णु को जगाया।भगवान ने देवताओं के कष्ट को सुना।उन्होंने दोनों का वध करने का निर्णय लिया।विष्णु के संग्राम से मधु-कैटभ प्रसन्न हो गए।उन्होंने विष्णु से कहा वर माँगो।विष्णु ने कहा,मैं इतना चाहता हूँ कि तुम दोनों मेरे द्वारा मारे जाओ।मधु-कैटभ ने कहा-'तथास्तु।लेकिन हमारा वध ऐसी जगह करना जहाँ जल न हो।'सर्वज्ञ विष्णु ने जाँघ पर उनके सिर रखकर काट डाले।इस प्रसंग में,राक्षसी वृत्तियों में लिप्त,मधु-कैटभ जैसे पुत्रों को भी भगवान ने समाप्त किया क्योंकि ये ब्रह्मा जी और देवताओं के लिए संकट बन गए थे।जगन्माया ने न्याय की रक्षा की।द्वितीय चरित्र की कथा,महिषासुर मर्दिनी की है।महिषासुर नाम का एक भयानक दैत्य था।वह देवताओं को अपना दुश्मन मानता था।देवताओं के राजा इंद्र तक उससे भयभीत थे।अग्नि,पवन,चंद्रमा और यम महिषासुर के आगे सिर झुकाते और आज्ञा मानते थे।अन्याय का अँधेरा चारों ओर फैल गया।उस समय दान कि जगह दमन होता था।यज्ञ,जप-पूजन पर दैत्यों ने प्रतिबंध लगा दिया था।साधारण जनता बहुत परेशान थी,कोई निदान नहीं था।अपने-अपने घमंड में चूर,अलग-अलग रहने वाले देवता,एकत्र हुए।सबने निश्चय किया कि महिषासुर का वध किया जाय।इस हेतु सबने अपना-अपना अंश दिया।ब्रह्मा,विष्णु और महेश जैसी शक्तियाँ मिल गईं।इन तीनों शक्तियों के मेल से दुर्गा का स्वरूप बना।महादेव के तेज से दुर्गा का मुख निर्मित होते ही लोक में आलोक फैल गया।यम के तेज से काले चमकीले केश बने।भगवान विष्णु के तेज से बलिष्ठ भुजाएँ बनीं।चंद्रमा के अमृत से स्तन बने,इंद्र के तेज से कटि प्रदेश बना।वरुण के तेज से जाँघें बनी।पृथ्वी के तेज से नितंब बने।कुबेर के तेज से सुंदर नासिका बनी।प्रजापति के तेज से दाँत बने।अग्नि के तेज से तीन नेत्र बने।दोनों संध्याओं के तेज से भौंहें बनी।वायु ने अपने तेज से दोनों कान बनाए।इस प्रकार सभी देवताओं ने अपना सर्वश्रेष्ठ अंश देकर दुर्गा देवी की संरचना की।इसके अलावा सभी देवताओं ने अपने प्रभावशाली और अचूक अस्त्र तथा शस्त्र दिए।सहयोग भावना से महादेव ने अपना त्रिशूल दिया।शत्रु संहारी कृष्णा ने अपना सुदर्शन चक्र दिया।अग्नि ने क्षार करने वाली शक्ति दी।वरुण ने शंख दिया।मारुति ने अपना धनुष दिया और दो तरकस दिए।देवराज इंद्र ने अपना कठोर वज्र और घंटा दिया।यमराज ने कालदण्ड दिया।वरुण ने पाशबन्ध दिया।प्रजापति ने रुद्राक्ष की माला अर्पित की।ब्रह्मा ने कमण्डल दिया।सूर्य ने रोम-रोम में तेजस्विनी किरणें प्रदान कीं।काल ने अपनी तलवार और ढाल दे दी।इस तरह देवी के अलंकरण में भी सभी देवताओं ने प्रतिभागिता की।क्षीर सागर ने अपना हार और सदाबहार वस्त्र दिए।शरीर के अन्य आभूषण चूड़ामणि,दिव्य कुण्डल,अभेद्य कवच और कभी न कुम्हलाने वाली कुसुम माला आदि दिए।हिमालय ने सवारी के लिए सिंह दिया।शेषनाग ने मणि-संपन्न हार दिया।इस प्रकार सभी देवताओं ने अपने सर्वप्रिय शृंगार और हथियार देकर,युद्ध के लिए दुर्गा देवी को तैयार किया।दुर्गा देवी ने घनघोर गर्जना की।सारा भू और नभ मण्डल ध्वनि से प्रतिध्वनित हो उठा।इस गूँज से जिन देवताओं के मन में निराशा थी उनमें नया उत्साह,नवीन शक्ति और विजय का विश्वास जगा।असुर सेना में चामर और महादैत्य कुविख्यात बलवान थे।इनके अतिरिक्त दैत्य महाहनु और नुकीली रोमावली का असिलोमा,आदि करोड़ों राक्षस वहाँ आ गए।उस समय के हथियार भी विचित्र तथा भयंकर थे।तोमर,भिंदपाल,शक्ति मूसल,परशु,पट्टिश,खंग,खड़ग आदि से युद्ध लड़े जाते थे।दुर्गा का वाहन तेजगति से शत्रु सेना का संहार कर रहा था।आग्नेग शास्त्रों ने वेगवती लपटों से झुलसाना शुरू कर दिया।पवन ने शत्रुओं की नाक में दम कर दिया।दुर्गा देवी को पूरा समर्थन और प्रोत्साहन मिल रहा था।'देवी जी की जय हो' उद्घोष में सबकी आवाज़ थी।ललकारों और युद्ध के बाजों से सन-सनाहट फैल गई।विचित्र परिवेश था,कहीं सुनसान था तो कहीं घोर मारामारी।जिन सेनापतियों पर महिषासुर को घमण्ड था,वे सब के सब,अब घायल और अक्षम थे।छिक्षुर के मरते ही देवताओं ने प्रसन्न होकर पुष्प वर्षा की।तब चामर आगे बढ़ा और दुर्गा पर झपटा।दुर्गा ने उसके आयुधों को काटना शुरू किया।जब चमार ने शूल चलाया तो देवी ने बाणों द्वारा उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए।देवी ने तो कमाल कर दिया।उन्होंने चामर के हाथी को मार डाला।अवसर देखकर देवी ने चामर का काम तमाम कर दिया।क्रम से अन्य असुर अन्धक,ताम्रदैत्य,महाहनु आदि मारे गए।संघर्षों के पश्चात छली महिषासुर भी मारा गया।उसके न रहने पर दैत्य सेना तितर-बितर हो गई।कुछ दैत्यों ने दुर्गम पहाड़ियों में आश्रय बना लिया।कुछ पाताल में जा छिपे।इस प्रकार देवी दुर्गा ने असुरों का अंत किया।तृतीय चरित्र शुंभ-निशुंभ का है।”,जिनके अत्याचारों से व्यक्ति तो पीड़ित थे ही,शक्तिशाली देवता तक त्रस्त थे।निःसहाय कष्ट भोगियों ने,हिमालय पर्वत स्थित जगन्माता से,जाकर सहायता करने की प्रार्थना की।उसी समय चंड और मुंड नाम के दो असुर भी वहाँ पहुँच गए।उन्होंने महामाया के अपूर्व सौंदर्य को ही देखा और उसे अपने स्वामियों निशुंभ-शुभ के लिए पत्नी बनाने का निर्णय लिया।वे शीघ्रता से वापस लौटे और उन्होंने राक्षसराज शुंभ से कहा,”आपने इंद्र से ऐरावत लिया,स्वर्ग से पारिजात ले आए,कुबेर से विमान ले लिया लेकिन बिना महामाया जैसी सुंदरी के,सभी कुछ महत्वहीन है।इस प्रस्ताव से शुंभ ललचाया और उसने चतुर सेनापति सुग्रीव को यह कह कर भेजा कि विवाह का प्रस्ताव महामाया के सामने रक्खे।सुग्रीव,महामाया के पास गया और उसने अपना परिचय देकर विवाह प्रस्ताव रक्खा।महामाया ने कहा,”विचार तो ठीक है लेकिन मैंने यह निर्णय किया है कि जो वीर मुझे हरा देगा,उसके साथ ही,मैं विवाह करूँगी।”सुग्रीव शुंभ के पास लौट आया और उसने सारी जानकारी दी।शुंभ का क्रोध बढ़ गया और उसने दैत्यनायक-धूम्रलोचन को आदेश दिया कि वह जाकर महामाया को घसीटकर लाए।महामाया ने कहा,”शुंभ वासना में दीवाना है।मैं बलात् शक्ति के आगे झुकूँगी नहीं।”तब वहाँ घनघोर युद्ध हुआ और धूम्रलोचन मारा गया।रण से भागे कुछ सैनिकों से,यह समाचार सुनकर,शुंभ ने चंड-मुंड को भेजा।जगन्माता ने क्रोध में रौद्र रूप धारण किया।महाकाली के विकराल वेश में उसने दोनों को समाप्त कर दिया।तब मुण्डमाल और खप्पर धारण करने वाली महाकाली की स्तुति सभी ने की।तत्पश्चात् रक्तबीज आया।उसके रक्तकण धरती पर गिरने से उसके समान ही अनेक रक्तबीज उत्पन्न होने लगे।इस प्रकार देवी को अनेक राक्षसों का सामना करना था।अतः काली ने ख़ाली खप्पर में उसका श्रोणित भरा और पी गई जिससे संख्यावृद्धि न हो।घनघोर युद्ध में रक्तबीज तथा निशुंभ मारे गए।भाई के निधन से क्षुब्ध शंभु ने युद्ध किया और मर कर ही परास्त हुआ।आत्मरक्षा में वैष्णवी ने विकराल बनकर,आत्मनिर्भरता का आश्रय लिया।इस प्रकार हम कह सकते हैं किनवरात्र -साधना केवल क्रिया नहीं है,अपितु एक जीवनशैली है।साधना एक,दो या नौ दिनों में समाप्त नहीं होती है,ये दिनों दिन और प्रगाढ़ होकर हमारे दैनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग बन जाती है।इन नौ दिनों में स्थूललोक एवं सूक्ष्मलोक साधक के अत्यंत नज़दीक होते हैं।इस समय जो भी कर्म,भाव,विचार हम बोएँगे वह अनेक गुना फलदायी होकर हमें प्राप्त होगा।दैवी विभूतियाँ इस समय में अधिक सक्रिय हो,अपने अनुदान,आशीर्वाद वितरित करने के लिए सुपात्रों की तलाश में रहती हैं।जिनका हृदय तपस्या की रश्मियों से ओत-प्रोत है,हृदय में ईश्वरीय मिलन की कामना है,उनके लिए नवरात्र एक नवजीवन का प्रारंभ हो सकता है।इस प्रकार प्रत्येक जीवात्मा को सर्वशक्तिमान सत्ता से जुड़ने का प्रयत्न करना चाहिए।इनकी भक्ति से ही विश्व की अनेक विभूतियों ने प्रेरणा प्राप्त कर अपने जीवन के चरमोत्कर्ष लक्ष्य को प्राप्त किया है।इस प्रकार सही मायने में हम अपने मद का मर्दन कर चेतना का परिष्कार करने में सफल हो सकेंगे।“कमल नयन गौरी सुनो,नाम एक सौ आठ।दुर्गाप्रीति प्रतीति हित,करें भक्तजन पाठ।।”आप सभी को शक्ति की भक्ति और उपासना के पर्व शारदीय नवरात्रि की अनंत मंगलकामनाएँ!

*डॉ.प्रीति प्रवीण खरे,19,सुरुचि नगर,कोटरा सुल्तानाबाद,भोपाल म.प्र,पिन-462003,मो-9425014719




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